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________________ 376 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 189-191 पूर्वद्वारसे ले जाकर वहाँ पुस्तकादि दर्शाते हैं / जनमे हुए ये देव उस पुस्तकसे अपने लिए यथायोग्य अवसरके प्रसंगों तथा परंपरागत रस्म-रिवाजोंसे सुमाहितगार बनकर, नन्दननामक बावडीमें पूजाभक्ति निमित्त पुनः स्नानादिक करके ३४२जिनपूजादिकके उत्तम सभी कार्य क्रमशः विधिपूर्वक करके, बादमें विधिपूर्वक सुधर्मासभामें आरूढ़ होकर स्वकार्यमें तथा देव-देवीके विषयादिक सुखमें तल्लीन बनते हैं। साथ ही वे देव सर्वाग पर मस्तक, कण्ठ, हस्त, कर्णादि अवयवों पर आभूषणोंको धारण करनेवाले, 'अजरा' अर्थात् जरावस्थारहित, अर्थात् हमेशा अवस्थित यौवनवाले, 'निरूआ' अर्थात् निरोगी, खाँसी-श्वासादि सर्व व्याधिमुक्त, 'समा' अर्थात् समचतुरस्र संस्थानवाले हैं। [190] साथ ही सभी देव भवस्वभावसे ही लीलायुक्त सुन्दर अनिमेषनेत्रवाले. अर्थात् जिनके नेत्र कभी भी पलक मारते नहीं है अथवा बन्ध होते नहीं हैं, अपरिमित सामर्थ्यसे 'मनसे ही सर्व कार्यके साधक' अम्लानपुष्पमाला 43 अर्थात् खीली हुी (विकस्वर, सुगन्धयुक्त देदीप्यमान) सदा ही प्रफुल्लित कल्पवृक्षकी लम्बी पुष्पमालाको उत्पत्तिके बाद ( अलंकार सभामें ) धारण करनेवाले, साथ ही पृथ्वी पर आगमन करते समय पृथ्वीका 342. ये नियम सम्यग्दृष्टि देवके लिए ही समझें / मिथ्यादृष्टिदेव अपने आराध्य देवादिककी विधि ही उपयोगमें लाते हैं। 343. प्रश्न-देवोंके कण्ठवर्ती पुष्पमाला सचित्त होती है कि अचित्त ? अगर यह सचित्त है तो माला कल्पवृक्षमेंसे बनी होनेसे एकेन्द्रिय है और एकेन्द्रिय जीवोंका आयुष्य 10 हजार सालका है तो देवोंकी सागरोपम जितनी उम्र तक यह माला सचित्त-सचेतनपनसे हरी (खली हुई। कैसे रह सकती है ? __ और यदि उसे हम अचित्त माने तो यह माला देवोंके च्यवनान्त पर मुरझाने लगती है ऐसा सिद्धांतों में ' कहा है, तो अचित्त माला किस तरह मुरझा सकती है ? उत्तर-शास्त्रोंमें देवोंकी माला सचित्त होती है कि अचित्त इस विषयमें किसी भी ग्रन्थमें स्पष्ट उल्लेख देखनेको नहीं मिला है अतः अनेक तर्क-वितर्क संभवित बनते हैं, फिर भी सचित्त अथवा अचित्त दोनों रीतिसे माननेमें हरकत-शंका नहीं है। अगर इसे सचित्त माने तो जिस समय एक विवक्षित जीवका आयुष्य पूर्ण होता है अर्थात् उस स्थान पर वह जीव या कोई दूसरा जीव उस मालामें वनस्पति स्वरूप उत्पन्न / और यह माला अम्लान रहे, अथवा अचित्त माने तो ' म्लान' अर्थात्. कांति-तेज प्रथमावस्थासे कुछ होते जाते हैं ऐसा मानना अधिक उचित लगता है / तत्त्व ज्ञानीगम्य /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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