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________________ शेष तीन गति आश्रयी आहारकालमान ] गाथा 186-187 [369 अपवाद परन्तु इतना विशेष समझना कि एकेन्द्रिय जीव- सम्मूछिम पंचेन्द्रिय मनुष्य जो (मनः पर्याप्तिको छोड़कर शेष) चार ही पर्याप्तिवाले होते हैं इससे उनका आहार ग्रहण अनाभोग निवर्तित ही है क्योंकि वे जीव अतिशय अल्प और अपटु ( अस्वस्थ ) मनोद्रव्यकी लब्धिवाले होते हैं अर्थात् उनमें स्पष्ट मनोशक्ति ही नहीं होती कि जिससे उनका आहार ग्रहण समजपूर्वकका संभवित बन सके / अपने प्रतिकूल-अशुभ कर्मके उदयके कारण नारकोंमें यह लोमाहार अमनोज्ञ अर्थात् अप्रियरूप बनता है। अतः वे हमेशा अतृप्त ही रहते हैं। इन्हें आहारजन्य (सुखकी प्राप्तिके बदले उल्टा) दुःख ही मिलता है। जब कि तथाविध शुभ कर्मोंके उदयके कारण यह आहार देवोंके लिए मनोज्ञ-प्रिय, रुचिकर तथा सुखद है और इसलिए उन्हें परमसंतोषरूप तृप्ति भी मिलती है। इसी कारण शास्त्रमें देवोंको 'मनोभक्षी के रूपमें पहचाने जाते हैं। क्योंकि सभी देव तथाविध शक्ति अनुसार अपने मनसे शरीरको पुष्ट कर सके वैसे मनोभक्षणरूप आहार पुद्गलोंको ग्रहण करके तृप्त बनते हैं। ओज आहार-देवोंको छोड़कर शेष जीवोंके लिए अनाभोगिक / .. लोम आहार-सर्व जीवों में आभोगिक तथा अनाभोगिक दोनों प्रकारसे / प्रक्षेप (कवल) और मनोभक्षणरूप आहार-द्विइन्द्रियोंसे लेकर पंचेन्द्रियों तकके सभी जीवोंमें आभोगिक ही मिलता है। जीव अनाभोगिकरूप आहार ग्रहण जीवनपर्यंत निरंतर करते ही रहते हैं, जब कि आभोगिकके लिए वैसा नहीं होता है। [186] . अवतरण-यहाँ पर इससे पहले हम देवगति आश्रयी आहारमान बता चुके हैं। अब आहारके प्रकरणमें ही प्रवर्तमान नरक, तिर्यच तथा मनुष्यगति आश्रयी आहारका कालमान जणाते हैं। तह विगलनारयाणं, अंतमुहत्ता स होई उक्कोसो / पंचिंदितिरिनराणं, साहाविय छ? अट्ठमओ // 187 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 187 / / विशेषार्थ-द्विइन्द्रिय, तीइन्द्रिय तथा चौरिन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय जीव तथा नारक आहारके सतत अभिलाषी (इच्छुक ) होनेसे एकबार आहार ग्रहण करने के बाद फिरसे दूसरी बार उन्हें उत्कृष्टतापूर्वक एक अंतर्मुहूर्तके अन्तर पर विशिष्ट आहारकी इच्छा होती है। बृ. सं. 4.
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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