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________________ संघयणाश्रयी गतिका नियमन और छ. संस्थानका वर्णन ] गाथा 162-164 [ 341 गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 162 / / विशेषार्थ-अन्तिम छेवठ्ठा संघयणवाले जीव अधिकसे अधिक भवनपतिसे लेकर सौधर्मादि प्रथमके 3१३चार कल्प तकमेंसे ही उत्पन्न हो सकते हैं। कीलिका संघयणवाले जीव ब्रह्म यावत् तथा लांतक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं। अर्धनाराच संघयणवाले शुक्र तथा सहस्रार देवलोकमें, नाराच संघयणवाले आनत-प्राणतमें, ऋषभनाराचवाले आरण अच्युत यावत् और वनऋषभनाराच संघयणवाले जो चाहे उसी गतिमें यावत् सिद्धिस्थान पर भी उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि ये संघयणवाले तो तद्भव पर योग्यताको पाकर उसके लायक भी बन सकते हैं। [162) // संघयणाश्रयी गतियन्त्र // // संघयण-संस्थान नाम यन्त्र // छेवट्ठा सं. | म. से चौथे / 1 वज्रऋषभ- | समचतुरस्र वाला | कल्प यावत् / नाराच कीलिका सं. | भ. से / 2 ऋषभनाराच | न्यग्रोध वाला लांतकान्त अर्धनाराच | भ. से 3 नाराच सहस्रारान्त नाराच भ. से 4 अर्धनाराच वामन प्राणतान्त ऋषभनाराच | भ. से | 5 कीलिका अच्युतान्त वज्र ऋ. भ. से 6 छेवटुं / हुण्डक नाराच ___ सिद्धशिलांत अवतरण-संघयण भी कुछ संस्थानसे अनुलक्षित है, इससे -- संस्थान 'का वर्णन करते हैं। समचउरंसे निग्गोह, साइ वामणय खुज्ज हुंडे य / जीवाण छ संठाणा, सव्वत्थ सलक्खणं पढमं / / 163 // नाहीइ उवरि बीअं, तइअमहो पिठि-उअरउरवज्जं / सिर-गीव-पाणि-पाए, सुलक्खणं तं चउत्थं तु // 164 // ___313. इस लिए ही वर्तमानकालमें हुण्डक संस्थान होनेके कारण जीव अधिकसे अधिक चार देवलोक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं / कुब्ज
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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