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________________ 338 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 159-160 एक अस्थि ), ऋषभ अर्थात् पट्टा और नाराच अर्थात् उभय दोनों ओर मर्कटबन्ध हो उसे प्रथम संघयण जानें / // 159-160 / / विशेषार्थ-संघयण अथवा संहनन ये दोनों शब्द एकार्थकवाची है / संहनन अर्थात् संहन्यन्ते संहतिविशेषं प्राप्यन्ते शरीरास्थ्यवयवा यैस्तानि संहननानि अर्थात् जिससे शरीरके अवयव तथा हड्डियाँ विशेष रूपसे मजबूत हो सके उस प्रकारके बंधारणको संहनन-संघयण कहते हैं। (संघयण प्राकृत शब्द है ) - अथवा संघयणमद्विनिचओ इस पदसे * अस्थिका समूह-गठन विशेष ' उसे संघयण कहते हैं। दूसरे मतसे संहनन माने 'शक्तिविशेष' ऐसा भी अर्थ करते हैं। अथवा उत्तरोत्तर दृढ-दृढतर जो शरीरका गठन (रचना) है वह / . ये संघयण छः प्रकारके हैं / 1. वज्रऋषभनाराच-वज्र अर्थात् कीलि, ऋषभ अर्थात् पट्टा और नाराच कहते मर्कटबन्ध-ये तीन बन्धारण (रचना) जिसमें हो वह / यह संघयण महान पुरुषों में होता है और वह शरीरके संधिस्थानों में होता है। वहाँ प्रथम मर्कटबन्ध अर्थात् आमने सामने हड्डीके भाग एक 30 दूसरे पर आँटी लगाकर जुटे हुए हो 307( वानरके बच्चेके समान ) और उस अस्थिके मर्कटबन्ध पर मध्य भागमें नीचेसे ऊपर तक चारों ओरसे हड्डियोंका एक पट्टा वृत्ताकारसे घिरा हुआ होता है, और पुनः उसी पट्टेके ऊपर मध्यभागमें हड्डीसे बनी हुई एक मजबूत कीलिका पूरे पट्टेको भेदकर, ऊपरके मर्कटबन्धको भेदकर, अथवा नीचेके पट्टेको तथा मर्कटबन्धको भेदती हुी बाहर निकलती है अर्थात् आरपार निकली हुी होती है। इसे पहला वज्रऋषभनाराच संघयण कहा जाता है। यह संघयण 'इतना तो मजबूत होता है कि ऐसी हड्डीकी संधि पर चाहे जितना भी उपद्रव-प्रहार करें या चोट लगायें, फिर भी इसका अस्थिभंग होता ही नहीं है और न तो 306. मल्लकुस्ती लड़नेवाले दावपेच खेलते हुए जिस प्रकार आमने-सामने बांहें (बाहु) पकड़ते हैं, वैसे पकड़ना। 307. मर्कट अर्थात् वानर, अर्थात् वानरका बच्चा अपनी माताके पेटपर ज्यों चिपक जाता है और उसके बाद वानर चाहे जितनी भी उछल-कूद करें फिर भी वह बच्चा अलग होता नहीं है, इसी प्रकारके बन्धको मर्कटबन्ध कहते हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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