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________________ 316 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 143 . समयसे लेकर अनुक्रमसे वृद्धि पाता जाता है। तथा साथ साथ वे जीव उत्पत्तिके प्रारम्भिक समय से ही स्व स्व योग्य (आहारग्रहण, शरीररचना, इन्द्रियरचना, श्वासोच्छ्वास नियमन, भाषा-वाचानियमन तथा मनोरचनारूप ) पर्याप्तिओं-शक्तियोंका प्रारम्भ समकालमें करने लगते हैं और एक अन्तर्मुहूर्तमें समाप्त करते है। यह नियम हरेक जीवोंके लिए समझना है। अतः जीव तथाविध कर्मसामग्री द्वारा देवायुष्य तथा देवगत्यादिका बन्ध रखकर जब परभवमें देवगतिमें देवरूप उत्पन्न होता है, तब उत्पत्तिप्रायोग्य देवशय्यामें उत्पन्न होते उस जीवकी उत्पत्तिके प्रथम समय पर, 24 भवधारणीय शरीरकी अवगाहना अंगुलके असंख्यातवे भागकी होती है, कोयलेमें गिरे हुए उस अग्निकणके समान उत्पन्न होकर प्राथमिक संकोच छोडकर अल्प समयमें विकसित-वृद्धिंगत हो जाते है और उत्पत्तिके प्रथम समयसे स्वयोग्य पर्याप्तियोंका भी आरम्भ करते हैं। वैक्रियशरीरावगाहना-[ यहाँ वैक्रिय शरीरसे देव नारकोंका 244 भवप्रत्ययिक उत्तरवैक्रिय और २४५मनुष्य-तियंचादिका मुख्यत्वे तथाविध लब्धिप्रत्ययिक वैक्रिय गिनना है, अतः भवधारणीय वैक्रियका ग्रहण न समझे / ] देव जब किसी भी प्रकारके स्वरूपमें उत्तरदेहकी रचना करनेकी शुरूआत करे, तब उस उत्तरवैक्रिय शरीरकी अवगाहना प्रथम समय पर ही अंगुलके संख्यातवे भागकी होती है और उसके बाद क्रमशः वृद्धि पाते हैं / देव तथा नारक जिस जिस स्थानाश्रयमें जिस जिस प्रमाणरूपमें उत्पन्न होनेवाले है, वहाँ उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्तमें स्वस्थानयोग्य प्रमाणवाले बन जाते हैं / ___अपवाद-परन्तु वैक्रियलब्धिरहित औदारिक शरीरी ऐसे गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंचादिको यह नियम बन्धनरूप बनता नहीं है / वे जीव तो यथायोग्य समय पर क्रम क्रममें स्वयोग्य प्रमाणवाले बनते हैं। 293. देवोंका भवधारणीय शरीर वह वैक्रिय है फिर भी भवधारणीय विशेषणसे युक्त होनेसे सभी भवधारणीयकी व्याख्या-चर्चा-विचारणामें उसका समाविष्ट यथायोग्य करे। 294. देवकी तरह नरकके दोनों शरीरकी व्याख्या सोच ले / 295. उसी प्रकार वैक्रियलब्धिवंत गर्भज मनुष्य तथा गर्भज तिर्यंच भी लब्धि प्रगट करके 'विष्णुकुमारादिवत् ' वैक्रिय शरीरकी रचना करते है तब उसे भी देववत् अंगुलके संख्यातवे भागकी अवगाहना होती है। वैक्रियलब्धिवन्त वायुकाय जीवोंका उत्तरवैक्रिय शरीर प्रारम्भमें या बादमें अंगुलके असंख्यातवे भागका होता है, क्योंकि वायुकाय जीवोंकी जघन्योत्कृष्ट शरीर अवगाहना अंगुलके असंख्यातवे भागकी ही है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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