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________________ मनुष्य क्षेत्रवर्ती सूर्य-चन्द्रमण्डलाधिकार ] गाथा-९१ [267 २५७सूर्यों में से कोई भी सूर्य आगे पीछे नहीं होता, इसीलिए जितने नरलोकमें सूर्य उतने ही दिवस और उतनी ही रात्रियाँ हो / क्योंकि सर्व सूर्योका गमन एक साथ सर्वत्र होता है और इसीलिए प्रत्येक सूर्यको स्वस्वमण्डलपूर्ति 60 मुहूर्तमें अवश्य करनेकी ही होती है / इस कारणसे यहाँ इतना विशेष समझना कि 25 लवणसमुद्रादिवर्ती आगे आगेके सूर्य पूर्व पूर्व सूर्यगतिसे शीघ्र शीघ्रतर गति करनेवाले होते हैं। क्योंकि आगे आगे वह सूर्यमण्डलस्थानोंका परिधि वृद्धिगत होता है और उस उस स्थान पर किसी भी सूर्यको मण्डलपूर्ति एकसाथ करनेकी होती है / अतः जम्बूद्वीपके मण्डलवर्णन प्रसंग पर कहे गए 184 मण्डलसंख्या तथा चार क्षेत्रादिसे लेकर दृष्टिपथ तककी सर्व व्यवस्था जम्बूद्वीपकी रीतिके अनुसार लेकिन उस उस क्षेत्रस्थानके परिधि आदिके विस्तारानुसार सोच लें। (फक्त गणितके अंक बड़े होंगे) ___इस तरह सूर्य तथा चन्द्रमण्डलका विवेचन किया गया। इसके सिवा पौरुषीछाया आदि सर्व प्रकारका सविस्तर वर्णन जाननेकी जिज्ञासावाले महानुभावोंको सूर्यप्रज्ञप्तिलोकप्रकाशादि ग्रन्थान्तरसे जाननेका प्रयत्न करें / इति समाप्तोऽयंसार्धद्वीपवर्ती सूर्य-चन्द्र मण्डलाधिकारः // / / प्रत्येक द्वीप-समुद्राश्रयी ग्रह-नक्षत्रादि प्रमाण-करण / / ... अवतरण-मण्डल विषयक सविस्तर वर्णन किया / पहले प्रतिद्वीप-समुद्राश्रयी चन्द्र-सूर्य संख्या निकालनेका कारण बताया था / अब शेष रहे ग्रह-नक्षत्र-ताराका किसी भी द्वीप-समुद्राश्रयी संख्याका प्रमाण निकालनेके लिए 'करण' बताते हैं। गह-रिक्ख-तारसंख, जत्थेच्छसि नाउमुदहि-दीवे वा / तस्ससिहिएगससिणो, गुण संखं होई. सव्वग्गं // 91 / / 257. यहाँ इतना विशेष समझना कि जो जो सूर्य जिस जिस स्थानमें घूमता है उसके नीचे वर्तित क्षेत्रके मनुष्य उसी सूर्यको देखते हैं / 258. इस तरह ढाई द्वीपमें चन्द्र-सूर्योका अन्तर बताया नहीं गया, परन्तु अभ्य०-पुष्करार्धके 8 लाखके 36 भाग करनेसे जितना क्षेत्र आवे उतने अन्तर पर सूर्य स्थापित करें, उसमें मानुषोत्तरकी तरफका उतना अन्तर खाली रक्खें / जम्बूकी तरफ पुष्कराधके प्रारम्भसे सूर्य स्थापित करें, मानुषो० के पास छूता सूर्य न हो / कालोद० के लिए 8 लाखके २२वें भाग जितने अन्तर पर सूर्य स्थापित करें, परन्तु प्रारम्भ-पर्यन्त नहीं / 21 सूर्य बिचमें ही स्थापित करें इस तरह धातकी-लवणादिके लिए भी उक्त रीतसे सोच लेना योग्य लगता है / तत्त्व ज्ञानीगम्य /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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