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________________ दोनों सूर्योकी उदयास्त, मध्याह्नको स्थिति क्या है ? ] गाथा 86-90 [ 255 सोच लेना / ) इस नियमके अनुसार सर्वबाह्यसे ' अर्वाक मण्डलमें 31916 / योजन दूरसे सूर्य दीखता है; उस द्वितीय मण्डलके मानमें 85 4-24 यो जोडनेसे 32001 18-20 योजन आएँगे, इस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डल तक सोचें। ये दोनों सूर्य उदयास्त समय पर हजारों योजन दूर होने पर भी उनके बिम्बोंके तेजका प्रतिघात होता होनेसे सुखसे देखे जा सकते हैं अतः मानो पासमें ही हो ऐसे लगते हैं, तथा मध्याह्न पर मात्र 800 योजन दूर होने पर भी उनकी फैलती तीव्र किरणों के कारण मुश्किलसे दिखाई देते होनेसे पास होने पर भी बहुत दूर हो ऐसा लगता है और साथ ही दूर होनेसे ही दोनों उदयास्तकालमें पृथ्वीसे छूकर रहे हों और मध्याह्नसमयमें आकाशके अग्रभागमें रहे हों वैसे दीखते हैं। ___ यहाँ किसीको शंका हो कि-दोनों सूर्य उदयास्त समय पर हजारों योजन (47263 2. यो०) दूर होने पर भी मानो हमारे पासमें ही उदित होते हों ऐसा क्यों दीखता है ? और साथ ही मध्याह्नमें ऊपर आने पर मात्र 880 योजन जितने ही ऊँचे होने पर बहुत दूरस्थ जैसे क्यों दीखते हैं ? . इस प्रश्नके खुलासेमें जतानेका कि-उदय और अस्तकालके समय सूर्य बहुत (देखनेवालेके स्थामकी अपेक्षा 47263 3. यो०) दूर गये होते हैं, इस दूरत्वके कारण ही उनके बिम्बोंके तेजका प्रतिघात होता है; अतः मानो वे पासमें हों ऐसा भास होता है और इसीलिए सुखसे (आसानीसे) देखा जा सकता है। - और साथ ही मध्याह्नमें (देखनेवालेको होती प्रतीतिकी अपेक्षासे ) नजदीक होनेसे उनकी विस्तृत किरणों के सामीप्यके कारण मुश्किलसे देखे जानेके कारण (नजदीक होने पर भी) दूर रहे हों ऐसा दीखता है। ... जैसे कोई एक देदीप्यमान दीपक अपनी दृष्टिके पास हो फिर भी वह मुश्किलसे देखा जा सके। लेकिन दूर हो तो वही दीपक आसानीसे देख सकते हैं। वैसा यहाँ समझ लेना। और दूर होनेसे ही वे दोनों उदय-अस्तकालके समय२५३ पृथ्वीसे स्पर्श करके रहे __ 253. इतर -- मत्स्यपुराणादि' ग्रन्थोंमें-सूर्य पश्चिम समुद्रकी तरफ अस्ताचलमें अस्त होता है उसी स्थान पर अधःस्थानमें उतरकर, पातालमें प्रवेश करके, पातालमें ही पुनः पूर्वदिशाकी तरफ गमन करके पूर्वसमुद्रमें उदय पाता है, यह मनौती जैनदृष्टि से असंगत है। क्योंकि दृष्टिके स्वभावसे अथवा दृष्टि-दोषसे हम अपने चक्षुओंसे 47263 यो० 30 भाग प्रमाणसे विशेषतः दूर गए हुए सूर्यको अथवा उसके प्रकाशको देखनेके लिए असमर्थ हैं और इस शक्तिके अभावके
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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