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________________ 240 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 कृष्णपक्षमें तो प्रत्येक तिथि पर दो दो घडी देर-देरसे चन्द्रदर्शन होनेसे चन्द्रोदयके साथ रात्रिका सम्बन्ध न हो यह स्पष्ट समझा जाता है। . . ___ अतः सूर्यास्त होनेके बाद ( यथायोग्य अवसर पर उन उन दिवसोंमें) चन्द्रके उदय होते हैं ऐसा नहीं है, यदि सूर्यास्तके बाद चन्द्रके उदय होते ही और स्वीकृत रहते तो सूर्यके प्रकाशित होने पर दिवसमें भी चन्द्रमाके बिंबकी जो झाँकी देख सकते हैं वह भी नहीं देख पाते / / ऐसे ऐसे अनेक कारणोंसे रात्रिकालको बनानेमें चन्द्रोदय कारणरूप नहीं है, इसीलिए चन्द्रमाके अस्तित्ववाला काल वही रात्रिकाल ऐसा नहीं, किन्तु सूर्यके प्रकाशका अभाववाला काल रात्रिकाल कहलाता है / सूर्यके साथ चन्द्रमाका किसी प्रकारका (खास करके) सम्बन्ध न रखनेमें कारणभूत चन्द्रमाका अपना ही, सूर्यसे अलग ही प्रकारसे मण्डलचारपन है / इस चारके कारण तो सूर्य और चन्द्र दोनोंका जब राशि-नक्षत्रका सहयोग समान होता है तब वे दोनों २४४एक ही मण्डलमें-अमावसके दिवस आए होते हैं / और वह जिस दिवस पर आता है वह दिवस 2455 अमावास्या 'के नामसे प्रसिद्ध है। और दूसरे दिन वह चन्द्र पुनः मन्दगत्यादिके कारण हमेशा एक एक मुहूर्त सूर्यसे दूर पीछे पूर्णिमा यावत् रहता जाता है इतना प्रास्ताविक वक्तव्य जणाया / अस्तु, अब चालू विषय पर आवे / [पहले दोनों विरोधाश्रयी शंका उपस्थित हुई थी उसी तरह जिज्ञासु भरतऐरवत क्षेत्राश्रयी शंका उपस्थित करता है।] शंका -अथ भरत, ऐरवत क्षेत्रमें जब रात्रि जघन्य 12 मुहूर्त प्रमाणवाली हो तब महाविदेहमें दिवस उत्कृष्ट 18 मुहूर्त प्रमाणवाला हो, तो उस वक्त भरत-ऐश्वतक्षेत्र में 12 मुहूर्त प्रमाणका रात्रिकाल बीतनेपर कौनसा काल होता है ? समाधान -इस सम्बन्धमें पहले कहा गया खुलासा यहाँ भी समझ लेनेका है, परन्तु उस खुलासेसे यहाँ विपरीत तरह विचारनेका है / अर्थात् पूर्व-पश्चिम विदेहमें सूर्यास्तके तीन मुहूर्त शेष रहे हों तब भरत-ऐश्वत क्षेत्रमें सूर्योदय हो जाए, (और भरत-ऐश्वत क्षेत्रमें सूर्यास्तकालके तीन मुहूर्त शेष रहे हों तब पूर्व-पश्चिम विदेहमें सूर्योदय हो जाए) इस तरह दोनों प्रकारसे दोनों क्षेत्रोंके सम्बन्धमें समाधान समझ लें। 244. देखिए-सूरेण समं उदओ, चंदस्स अमावसी दिणे होइ / - तेसि मंडलमिक्किक-रासिविखं तहिक्कं च // 1 // 245. इसीसे ही अमावसका दूसरा नाम 'सूर्येन्दुसंगमः' पड़ा है, उसकी अमा सह वसतोऽस्यां चन्द्राकों इत्यमावस्या यह उत्पत्ति भी उसी अर्थको प्रकट करती है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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