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________________ 24 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 3-4 यह व्यावहारिक काल मनुष्य क्षेत्रवर्ती तिर्छ 4580000 पैंतालीस लाख योजन प्रमाण और ऊर्ध्वाधः 1800 योजन-प्रमाण क्षेत्रमें होनेका शास्त्रों में प्रतिपादन किया है / व्यावहारिककालके सम्बन्धकी इस मर्यादाका कथन इसीलिए है कि जिस क्षेत्रमें सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिष्चक्र चर होनेके साथ अपनी देदीप्यमान किरणोंसे प्रकाश देते हैं, उस क्षेत्रमें व्यावहारिककी। गिनती करनी है और समय आदिक सर्वकालको करनेवाला चर सूर्य ही है, इसीलिए उसे आदित्य कहा जाता है। श्री भगवतीसूत्र में प्रश्न हुआ है कि-' से केण?गं भंते ! एवं बुच्चई (सूरे) आइच्चे सूरे ? गोयमा ! सूरादिया णं समयाइ वा आवलियाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ वा अवसप्पिणीइ या से तेण?णं जाव आइच्चे / ' (पंचमांग-श्री भगवतीजी श० 12, उ० 6 ) शंका-कालका क्षेत्र ऊपर अनुसार अगर मर्यादित है तो देवलोक आदि अन्य , स्थानों में देवों आदिके आयुष्यका प्रमाण किस अपेक्षासे गिने ? क्योंकि उन स्थानों में व्यावहारिक कालका तो अभाव होता है। उत्तर–देवलोक आदि स्थानोंमें वर्तित जीवोंके आयुष्य आदिकी गणना ऊपर बताये मर्यादित क्षेत्रमें वर्तित व्यावहारिक कालसे ही करनी है। वहाँ सूर्य-चन्द्रके परिभ्रमणके अभावमें समय, आवलि, मुहूर्त, दिवस, मास, वर्ष आदि कालकी उत्पत्ति नहीं है; परंतु यहाँ वर्तित व्यावहारिक कालसे ही वहाँके जीवोंका आयुष्य आदि गिननेका शारों में अनेक स्थलों पर प्रतिपादन किया है। देवलोकमें सूर्य-चन्द्रादिके अभावमें अन्धकार हो ऐसी शंका करनेकी भी जरूरत नहीं है, क्योंकि देवोंके दिव्य विमानोंमें रहे मणिरत्नोंकी अद्भुत कांति, साथमें देवोंका अपना भी पुण्यप्रकर्ष [ उद्योतनामकर्मका उदय होता है कि वहाँ सर्वदा उद्योत ही होता है / यहाँ साथमें इतना समझना आवश्यक है कि ऊपर बताये मर्यादित क्षेत्रमें जिस तरह व्यावहारिक काल होता है उसी तरह नैश्चयिक (वर्तनापरिणाम-स्वरूप ) काल उस मर्यादित क्षेत्रमें और अन्यत्र देवलोक आदि सर्वस्थानोंमें भी होता है। ___ यह व्यावहारिक काल २८अतीत, अनागत और वर्तमान भेदको लेकर तीन प्रकारका है। उसमें अतीत और अनागतकाल अनंतसमयात्मक है / 28. 'अवर्धकृत्य समयं, वर्तमानं विवक्षितम् / .. भूतः समयराशियः कालोऽतीतः स उच्यते // ' 'अवधीकृत्य समयं वर्तमानं विवक्षितम् / ___ भावी समयराशियः कालः स-स्यादनागतः // ' 'वर्तमानः पुनर्वर्तमानकसमयात्मकः / असौ नैश्चयिकः सर्वोऽप्यन्यस्तु व्यावहारिकः // ' [ काललोकप्रकाश, सर्ग 28]
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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