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________________ 22 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 3-4 साथ ही दक्षिणदिशाके धरणेन्द्र प्रमुख नवों इन्द्रोंकी देवियोंका उत्कृष्ट आयुष्य आधे पल्योपमका है। उत्तरदिशाकी तरफके भूतानन्देन्द्र-प्रमुख नवों इन्द्रोंकी इन्द्राणियोंका आयुष्य देशे न्यून एक पल्योपमका जाने / इस तरह उस उस निकायमें रहनेवाले इन्द्र और इन्द्राणीके सिवा अन्य भवनपति देवों तथा उनकी देवियोंका जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुष्य उपलक्षणसे पूर्वोक्त कथनानुसार यथायोग्य समझ लें / [3-4] peacoasacacahacaracasacos है पल्योपम तथा सागरोपमका सविस्तर स्वरूप SaceaewwwREPROMOREPcence Percepoj सूचना-इस ग्रन्थमें भवनपति आदि देवोंके आयुष्यके प्रसंग पर तथा अन्य पदार्थोंके विवरणके प्रसंग पर पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, पुद्गल-परावर्त आदि शब्दोंका उल्लेख आता है, परन्तु उनको समझानेवाली मूल गाथाएँ इस चन्द्रिया संग्रहणीमें नहीं हैं। ___ यद्यपि सामान्यतः असंख्यातां वर्षका एक पल्योपम और दस कोडाकोडी पल्योपमका एक सागरोपम होता है / परन्तु असंख्य संख्या कितनी बड़ी है और पल्यकी उपमाके द्वारा और सागरकी उपमाके द्वारा वे काल प्रमाण कैसे लाया जाता है उसे समझना अत्यन्त जरूरी होनेसे ग्रन्थान्तरसे उसका विस्तृत स्वरूप यहाँ दिया जाता है / . सर्वसे अल्प [ जघन्यमें जघन्य ] काल एक समयका है जिसे सर्वज्ञ भगवन्त ही जान सकते हैं। और उसी अत्यन्त सूक्ष्मकालको 'समय' कहा जाता है। एक निमेष [ आँख बन्द करके खोलने जितना समय ] मात्रमें असंख्याता समय व्यतीत होता है, ऐसा सर्वदर्शी परमर्षि पुरुषोंने प्रकाशित किया है। महानुभावो ! सोचो, एक निमेषमात्र में असंख्याता समय चला जाए तो समयरूप काल कितना सूक्ष्म होगा ? यह बात सामान्य बुद्धिवालोंको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है, परन्तु वीतराग परमात्माओंका वचन अन्यथा होता ही नहीं है। " वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न ब्रुवतेक्वचित् / यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् // " अर्थ _" रागद्वेष रहित सर्वज्ञ परमात्मा कदापि, असत्य प्रतिपादन करनेके कारणोंसे रहित होनेसे असत्यका प्रतिपादन करते ही नहीं, इसलिए उनका वचन "यथार्थ-सच है।" 25. आजके वैज्ञानिक एक मिनटके करोड़वें भागका ज्ञान रखते हैं तो क्षणभर विचार करें कि सामान्य मानव जड़यंत्रकी मददसे मिनटका करोड़वाँ भाग समझ सकें, तो त्रिकालदर्शी पुरुष उससे अति सूक्ष्म समयको ज्ञानसे जानें और कहें तो उसमें शंकाको जरा भी स्थान नहीं है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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