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________________ 208 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90. द्वार 43 योजन विस्तारवाला होनेसे चार द्वारोंकी चौडाई 18 योजनकी होती है। यह चौडाई जम्बूद्वीपके परिधिमेंसे कम करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसे प्रत्येक द्वारका अन्तर पानेके लिए चारसे भागने पर 79052 यो० 1 को०-१५७२ धनुष, 31 अंगुल एक द्वारसे दूसरे द्वारोंका परस्पर अन्तर आता है। किन्हीं भी जगतियोंके द्वारोंकी चौडाई सर्व स्थान पर समान होती है लेकिन आगे आगेके द्वीप-समुद्रोंके कारण परिधि बढता जाए, त्यों त्यों द्वारों के अन्तरमानमें वृद्धि होती जाए अर्थात् द्वारान्तरों में तफावत पड़ता है। ये द्वार मणिमय देहरी (देहली) और रम्यद्वार कपाट आदिसे सुशोभित है / जैसे इस सृष्टि पर गृहद्वारोंके देहली-अरगल होते हैं, वैसे इन द्वारोंके भी देहली, दो दो किवाड तथा किवाडौंको मजबूत बन्द करनेवाले अरगल भी होते हैं। जगतीका कुछ वर्णन तो पहले किया गया है / इति जम्बूद्वीपस्य अतिसंक्षिप्तवर्णनम् // द्वितीय लवणसमुद्रवर्णन-इस जम्बूद्वीपके परिवर्तित दो लाख योजनका वलय. विष्कंभवाला लवणसमुद्र है। उसका 22 परिधि 15081139 योजनमें कुछ न्यून है। इस लवणसमुद्रमें चार चार चन्द्र और सूर्य तथा गौतमद्वीप आदि द्वीप आए हैं। इस लवणसमुद्रमें भरतक्षेत्रके पूर्व भागमें बहनेवाली गंगा नदी जिस स्थानमें मिलती है वहाँ नदी और समुद्रके संगमस्थानसे 12 योजनकी दूरी पर मागध नामके देवकी राजधानीके रूपमें प्रसिद्ध बने हुए मागध नामका द्वीप जिसे 'मागधतीर्थ ' 22, कहा जाता है, वह आया है। इसी तरह भरतकी पश्चिमदिशामें दूसरी सिंधुनीके संगमस्थान पर 12 यो० दूर प्रभासदेवकी राजधानीवाला द्वीप जो ‘प्रभासतीर्थ' कहलाता है वह आया है। इन दोनों तीर्थोके मध्यभागमें उन दो तीर्थोंकी ही सतहमें (नदी-समुद्रके संगमसे 12 यो० दूर समुद्रमें ही ) वरदाम नामके देवसे प्रसिद्ध 'वरदाम' तीर्थ आया है। इसी तरह ऐरवत क्षेत्रमें रक्तवतीके संगमस्थानमें 12 योजन दूर समुद्रमें 'मागधतीर्थ' तथा रक्ताके संगमस्थानसे 12 योजन दूर 'प्रभासतीर्थ' है, उन दोनोंके बिच पूर्ववत् समुद्रमें 'वरदामतीर्थ' आया है। 32 विजयोंमें उत्पन्न होनेवाला चक्रवर्ती जब 6 खण्डोंका दिग्विजय करने निकलता है तब प्रथम मागधतीर्थके समीप समुद्र या नदीके किनारे पर अपने सारे सैन्यको स्थापित करके अट्ठम तप करके अकेला स्वयं ही चार अश्वोंवाले रथमें आरूढ होकर रथका मध्यभाग डूबे वहाँ तक समुद्रमें उतरकर रथके ऊपर खड़ा होकर, स्वनामांकित जो बाण मागधदेवकी राजधानीमें फेंके, वह बाण चक्रवर्तीकी शक्तिसे 12 योजन दूर जाकर मागध२२०. 'पण्णरस सतसहस्सा, एक्कासीतं सयं चउतालं / किंचिविसेसेणूगो, लवणोदहिणो परिक्खेवो // 1 // ' 221. जलाशयमें उतरने योग्य ढालवाला क्रमशः नीचे गया हुआ जो भूमिभाग होता है उसे तीर्थ कहा जाता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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