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________________ मनुष्यक्षेत्रमें नक्षत्र पंक्तिका स्वरूप ] गाथा 80-81 [ 167 मनुष्यक्षेत्रमें सदाकाल मेरुको प्रदक्षिणावर्त मण्डल द्वारा परिभ्रमण करता है तथा स्वप्रकाश्यक्षेत्रमें प्रकाश करता है / यहाँ इतना विशेष समझना कि, चन्द्र-सूर्य और ग्रह पृथक् पृथक् मण्डलमें परिभ्रमण करनेवाले होनेसे अनवस्थित योगसे परिभ्रमण करते हैं। जबकि नक्षत्र और तारे स्व-स्वमण्डलमें ही परिभ्रमण करनेवाले होनेसे उनका परिभ्रमण अवस्थित योगसे है / [80] // मनुष्यक्षेत्रमें नक्षत्रपंक्तिका स्वरूप // - अवतरण-प्रथमकी गाथामें मनुष्यक्षेत्रवर्ती चन्द्र-सूर्यकी पंक्तियाँ और पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी संख्या और उन चन्द्र सूर्यकी समश्रेणिमें रहने सम्बन्धी व्यवस्था भी बताई। अब नक्षत्रपंक्तियाँ किस तरह व्यवस्थित होती हैं यह बताया जाता है छप्पन्नं पंतीओ, नक्खताणं तु मणुयलोगम्मि / . छावट्ठी छावट्ठी, होइ इक्किकिआ पंती // 81 // [प्र. गा. सं. 16 ] गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 81 // विशेषार्थ मनुष्यक्षेत्रमें नक्षत्रकी छप्पन पंक्तियाँ हैं, और वे प्रत्येक पंक्तियाँ मेरुसे लेकर ज्वारों दिशाओं में मानुषोत्तरपर्वत तक सूर्य किरणोंकी तरह अथवा कदम्बपुष्पकी विकसित पंखुरियोंकी तरह गई हैं। उन प्रत्येक पंक्तिमें 66-66 नक्षत्र होते हैं / ऊर्ध्वलोकमेंसे देखने पर जम्बूद्वीपके लगभग अन्तभागसे शुरू होती हुई ये पंक्तियाँ जम्बूद्वीपके मध्यभागमें रहे मेरुपर्वतरूपी सूर्यने मानों अपनी ऋद्धि प्रकट करनेके लिए ही मानुषोत्तरपर्वत तक अपनी किरणें फेंकी हो, वैसी रमणीय लगती हैं / प्रारम्भमें ये पंक्तियाँ परस्पर अल्प अन्तरवाली-पास पासमें हैं, लेकिन आगे-आगे एक पंक्तिसे दूसरी पंक्तिका अन्तर बढ़ता जाता है। इस अढाईद्वीपवर्ती जो 132 चन्द्र और 132 सूर्य हैं उनमें दो चन्द्रका अथवा दो सूर्यका एक 'पिटक' कहलाता है / यहाँ नक्षत्रादि परिवारका स्वामिपन चन्द्रका होनेसे विशेष व्यवहार चन्द्रपिटक के साथ करना है। मनुष्यक्षेत्रमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या १३२-१३२की होनेसे और दो चन्द्र-दो सूर्यका एक एक * पिटक' होनेसे १३२की संख्याको दो से बाँटनेसे 66 चन्द्रपिटक और 66 सूर्यपिटक होते हैं / साथ ही एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्रके बिच दोनों दिशाओंके मिलकर 56 नक्षत्र होते हैं, उन 56 नक्षत्रोंका भी एक 'नक्षत्र पिटक' कहलाता है / दो चन्द्रकी अपेक्षासे एक नक्षत्रपिटक बनता होनेसे 132 चन्द्रकी अपेक्षासे 66 नक्षत्रपिटक होते हैं / जैसेकि लवणसमुद्र में चार चन्द्र होनेसे दो चन्द्रपिटककी अपेक्षासे दो नक्षत्रपिटक हुए, कुल नक्षत्र संख्या ११२की हुई, धातकीखण्डमें 12 चन्द्र होनेसे छः चन्द्रपिटककी अपेक्षासे छः नक्षत्रपिटक हुए, कुल नक्षत्र संख्या 336, कालोदधि
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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