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________________ 164 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 78-79 विचार करनेका किंचित् उचित लगनेसे उस संबंधमें यत्किंचित् वक्तव्य यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। इस अढाईद्वीप रूपी मनुष्यक्षेत्रमें चर ज्योतिषी विमानोंका व्यवस्थाक्रम विचारणा करनेपर समश्रेणिमें लेना विशेष उचित समझा जाता है, क्योंकि सिद्धान्तों में स्थल स्थलपर समश्रेणि क्रम बताया है / यद्यपि कालोदधि-पुष्करार्ध आदि द्वीपों में कही गई चन्द्र-सूर्यकी संख्याको उस उस समुद्रके वलयविष्कंभ (चौड़ाई )की अपेक्षासे किस प्रकार संगत करें ? यह विचारणीय है, क्योंकि सिद्धान्तमें प्रायः किसी भी स्थान पर मनुष्यक्षेत्रवर्ती चन्द्र-सूर्यका परस्पर १८४अन्तर कितना योजन प्रमाण है ? यह स्पष्टरूपसे नहीं बताया है / अतः इस विषयके लिए शास्त्रीय प्रमाणके सिवा विशेष उल्लेख करना अनुचित है, तो भी दूसरी तरह सूक्ष्मदृष्टिसे सोचनेसे ज्योतिषी विमानोंका व्यवस्था क्रम समश्रेणि में गिनना विशेष योग्य लगता है, फिर भी इस विषयके लिए बहुश्रुत महर्षि जो कहे वह प्रमाण है। ग्रन्थकार महर्षिने इष्ट द्वीप-समुद्रके सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या जाननेका जो 'करण' बताया उस करणके द्वारा हम पहले स्पष्ट समझ सके हैं कि मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्कराधमें 72 चन्द्र और 72 सूर्य हैं / ये 72 चन्द्र और 72 सूर्य मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धमें किस तरह रहे हैं उस सम्बन्धमें यहाँ विचार किया गया है। इस पुष्करार्धका वलयविष्कंभ आठ लाख योजनका है, उसमें मानुषोत्तर पर्वतसे पचास हजार योजन दूर जानेपर प्रथम चन्द्र और प्रथम सूर्यकी पंक्तियों की शुरुआत होती है। अर्थात् मानुषोत्तर पर्वतसे चारों बाजू पर पचास हजार योजन दूर जानेके बाद अमुक अमुक अन्तर पर चन्द्र-सूर्य रहे हैं / मनुष्यक्षेत्रके बाहरके इस पुष्करार्धमें प्रवर्त्तमान 72 चन्द्र और 72 सूर्य किस व्यवस्थासे रहे हैं उस सम्बन्धी कोई भी निश्चित निर्णय ज्ञात नहीं हुआ है / 'मण्डलप्रकरण, लोकप्रकाश, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और इस चालू बृहत्संग्रहणी' आदि ग्रन्थों में भी इन सूर्य-चन्द्रोंकी व्यवस्थाके सम्बन्धमें स्वयं कोई मत बताया नहीं गया है। यद्यपि दिगम्बरीय मत और अन्य मत दिखाया है / जो आगे ८३वीं गाथामें आनेवाला है परन्तु उस मतके अनुसार सूर्य-चन्द्रकी संख्या आठ पंक्तियों में गिननेके साथ प्रथम पंक्तिमें ही ( 145 मतांतरसे 144 आदि बहुत अलग प्रकारकी आती है।) इन 72 चन्द्रों और 72 सूर्योको मनुष्यक्षेत्रकी पंक्तियोंके अनुसार रचें तो पचास हजार योजनके अन्तर पर सूर्यसे चन्द्र दूर होने चाहिए, लेकिन यह तो किसी भी तरह व्यवस्थितरूपमें रह नहीं सकते / और परिरयाकारमें पंक्तियोंको रक्खें तो भी उन उन स्थानोंके परिधि आदि विशेष विशेष प्रमागवाले होते होनेसे पचास 184. अढ़ाईद्वीपमें उस उस क्षेत्रा माप लेकर उस मापको उस उस द्वीपगत चन्द्र-सूर्यकी संख्यासे भाग दे तो अन्तर प्रमाण प्राप्त हो या नहीं? यह बाबत परिशिष्टमें सोची जाएगी।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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