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________________ 158 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 76-77. अतः यह हकीकत व्यापक हो गई / यह बात भगवान महावीर महाराजने जानी और सर्वज्ञ भगवन्तने उस वस्तुका घटस्फोट किया। यह बात कर्णोपकर्ण शिवराजर्षि ने भी जानी। उन्होंने भी भगवानके समीप आकर कुछ १७प्रश्न किये / अंतमें उनको समाधान हुआ और अपनेको हुई इस शंकाके निवारण करनेवाले उन परमकारुणिक परमात्मा १७"महावीरदेवके प्रति परमभक्ति भी जागृत हुई / भावना भावते उन्होंने भी उस वस्तुको देख सकनेको समर्थ ऐसा केवलज्ञान प्राप्त किया जिससे स्वशंका भी दूर हुई। परंतु पूर्व प्रसरी हुई बात प्रबल स्वरूपमें फैली थी अतः वह प्रवाह अब तक चला आया है / इस बातको मान्य रखनेवाले क्षणभर सोचे कि जब तक उस राजर्षिको ज्ञान नहीं हुआ था और द्वीप-समुद्रकी प्ररूपणा नहीं की थी तब द्वीप-समुद्र के बारेमें वे क्या मानते होंगे? अरे ! वर्तमान उदाहरण सोचे कि, जब कोलंबसने अमेरिका खण्ड नहीं ढूँढा था, तब तक पृथ्वीके बारे में क्या . . मानते थे ? ज्यों ज्यों संशोधनकार्यका विकास होता गया त्यों त्यों वे आगे बढ़ते गए और कुछ साल पहले पाश्चात्योंने अमेरिकासे भी १७८आगेकी भूमिका संशोधन किया है और अब भी संशोधन कर रहे हैं। वैसे यहाँ भी जितने जितने पैमाने में ज्ञानशक्तिके विकासकी वृद्धि होती है उतने उतने पैमानेमें अतीन्द्रिय वस्तुएँ भी अवश्य आत्मसाक्षात् होती जाती है, अतः वस्तुका अभाव तो नहीं ही कह सकते / अतीन्द्रिय वस्तुको अगर. श्रद्धागम्य न मानी जाए और उसके लिए यद्वातद्वा दलीलें पेश की जाएँ तो कैसे चलेगा? दृष्टिसे न दिखाई देती ऐसी बहुत-सी बातें जैसे दूसरोंके कहनेपर मान ही लेते हैं / वैसे हमें आत्मप्रत्यक्ष ज्ञान न होनेसे हरएक वस्तु हमें आत्मप्रत्यक्ष नहीं होती, उस वक्त जिन्हें आत्मप्रत्यक्ष हुई हो तो उनके कहनेसे हमें उसे मान्य रखनी ही पड़ती है / अतीन्द्रिय ऐसी वस्तुएँ भी श्रद्धासे और युक्तिसे मान्य न रखें तो परभवके बारेमें भी शंका उत्पन्न होगी और नास्तिक वादियोंके मतको मानना पडेगा / जैन सिद्धान्तकारोंने बालजीवोंके हितार्थे आश्चर्यरूप ऐसे पदार्थ भी युक्ति-श्रद्धागम्य हो सके इसलिए अनेकानेक युक्तियां दी हैं, परंतु जो पदार्थ युक्तिसे भी समझाये न जा सके ऐसे हों वहाँ 'श्रद्धा' ही प्रमाण है / अतः ही क्षेत्रसमासके कर्ता कहते हैं कि 'सेसाण दीवाण तहोदहीणं, विआरवित्थारमणोरपारम् / सया सुयाओ परिभावयंतु, सर्वपि सम्वन्नुमइक्कचित्ता // 1 // ' अर्थ-'शेष द्वीप-समुद्रोंकी बुद्धिसे गम्य न हो ऐसी अपार विचारणाके सर्व स्वरूपको 176. देखिए भगवतीसूत्र श. 11. उ. 9 177. शिवराजऋषि विपर्यय देखतो रे, द्वीप सागर सात सात रे, वीरपसाये दोष विभंग गयो रे, प्रकट हुओ अवधिगुण विल्यात रे! 178. न्युझीलैन्ड देश / [ज्ञान पं०. देववंदा !
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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