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________________ 142 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 68-70. पाश्चात्य वैज्ञानिकों के मतानुसार गेंद जैसा या नारंगी जैसा नहीं है। इस आकारको 'प्रतरवृत्त' कहा जाता है। प्रतरवृत्त वस्तुकी लम्बाई और चौड़ाई प्रमाणमें एक समान होती है। इसी लिए वृत्ति विष्कम्भ ( प्रतरवृत्त )वाली वस्तुको मध्यबिन्दुसे किसी भी दिशा अथवा विदिशामें (आमने-सामने) माऐं तो भी उसका एक समान प्रमाण आएगा / 'समप्रतरवृत्त' (समगोल) वस्तुका व्यास (विस्तार ) समान होता है। अतः जम्बूद्वीप भी 'विषमप्रतरवृत्तादि' (लम्बगोल वा अर्धगोल) नहीं है लेकिन ‘समप्रतरवृत्त' है। इस ‘समप्रतरवृत्त' जैसे जम्बूद्वीपके चारों ओर परिवृत्त परिमण्डलाकारमें (चूड़ीके समान आकारमें ) 'लवणसमुद्र' आया है। अर्थात् चूडीमें चारों भागों पर किनारे और बीचमें पोला भाग हो वैसे जम्बूके परिवृत्त चूड़ीके समान वलयाकारमें लवणसमुद्र आया है। बीचमें पोलापन हो ऐसे गोलाकारको ‘परिमण्डल' अथवा 'वलय' कहा जाता है / यह लवणसमुद्र भी वैसे ही आकारमें है और उसका 'चक्रवालविष्कम्भ' अर्थात् वलयाकार वस्तुकी किसी एक दिशा( बाजू )की ओरकी चौड़ाई अर्थात् जम्बूद्वीपकी एक ओरकी जगतीसे लेकर ठेठ लवणसमुद्रकी जगती तक अथवा तो धातकीखण्डसे प्रारम्भके क्षेत्र तकका दो लाख योजन 'विष्कम्भ' प्रमाण होता है। तदनन्तर लवणसमुद्रसे परिवृत्त धातकीखण्ड वलयाकारमें आता है। यह खण्ड चार लाख योजन विष्कम्भवाला है। उससे परिवेष्टित मण्डलाकारमें आठ लाख योजन प्रमाण वलय विष्कम्भवाला कालोदधि रहा है, और उस कालोदधिके चारों ओर परिवेष्टित होकर सोलह लाख योजन चक्रवालविष्कम्भवाला पुष्करद्वीप आया है। इस तरह जम्बूद्वीपको परिवेष्टित कर परिमण्डलाकारमें पूर्व पूर्वसे दुगुने विस्तार (विष्कम्भ )वाले द्वीप-समुद्र हैं, उनमें जिसमें हम रहते हैं वह सबसे प्रथम जम्बूद्वीप है। और सबसे अन्तिम तिर्छालोकके अन्तमें स्वयंभूरमण नामका समुद्र आया है। इस समुद्रकी जगती पूर्ण हुई कि ( इसी समुद्रकी पूर्वदिशाकी वेदिकासे लेकर पश्चिम वेदिका पर्यन्त एक राज प्रमाणका ) ति लोक समाप्त हुआ, तदनन्तर दोनों बाजू पर अलोकाकाश आया है। [68-69] अवतरण-अब कतिपय द्वीपों के नाम कहते हैं-( साथ साथ ग्रन्थान्तरसे उन उन द्वीपोंका किंचित् स्वरूप भी कहा जाता है) जम्बू-धायइ-पुक्खर-वारुणि-खीर-घय-खोय-नन्दिसरा / अरुण-रुणवाय-कुण्डल-संख-रुयग-भुयग-कुस-कुंचा // 70 // 162 162. यहाँ 'अरुणरुणवाय' शब्दकी व्युत्पत्ति चन्द्रिया टीकाकारने—'अरुणशब्दस्य उप-सामीप्येन प्राक्पातः-पतनं नाम्नि यस्येति' इस तरह की है। इस हिसाबसे तो 'अरुणोपपात' ऐसा स्वतंत्र द्वीपनाम नहीं है; जब कि ठाणांगजीमें यह नाम ‘स्वतन्त्र द्वीप 'से वर्णित है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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