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________________ 138 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 65 . अवतरण-इस तरह तारे तथा नक्षत्रके बीचका व्याघातिक- निर्व्याघातिक जघन्योत्कृष्ट अन्तर कहकर, अब मनुष्यक्षेत्रके बाहर मानो लटकाए घण्टेकी तरह स्थिर लटकते हुए चन्द्रसूर्योंका परस्पर अन्तर कहते हैं। माणुसनगाउ बाहि, चन्दा सूरस्स सूर चन्दस्स / जोयणसहस्सपन्ना-सऽणूणगा अन्तरं दिलै // 65 // गाथार्थ-मानुषोत्तरपर्वतसे बाहर विवक्षित चन्द्रसे सूर्यका तथा सूर्यसे चन्द्रका अन्तर संपूर्ण पचास हजार योजनका सर्वज्ञोंने देखा है। // 65 // विशेषार्थ मनुष्यक्षेत्रकी मर्यादाको बनानेवाले, मानुषोत्तरपर्वतके बाहर विद्यमान चन्द्र, . . सूर्य और तारे आदि सर्व ज्योतिषीयोंके विमान तथाविध जगत् स्वभावसे अचल (स्थिर ) रहकर सदा प्रकाश देते हैं। इन सूर्य और चन्द्रादिके विमानोंका चराचरपन न होनेसे परस्पर राहु आदिका संयोग उन्हें नहीं है। अतः ग्रहणकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे किसी दिन उसके तेजमें और वर्णमें विकृति-परिवर्तन नहीं होता है। अतः सदैव उन विमानोंमेंसे सूर्यविमानोंका प्रकाश अग्निके वर्ण सदृश दिखता है, जब कि चन्द्रका प्रकाश बहुत ही उज्ज्वल होता है। और चर तथा स्थिर तारे आदिके विमान पांचों प्रकारके वर्णवाले होते हैं। इस तरह मनुष्यक्षेत्रके बाहर स्थित स्थिर चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषीका परस्पर अन्तर पचास हजार (50000 ) योजनका है, ऐसा श्री जिनेश्वर देवोंने कहा है। चर और स्थिर दोनों प्रकारके विमानों में से सुन्दर कमलगर्भ समान, गौरवर्णके, विशिष्ट प्रकारके वस्त्राभरणभूषणोंको धारण करनेवाले चन्द्रमाके मुकुटके अग्रभागमें प्रभामण्डल स्थानीय चन्द्रमण्डलाकारका चिह्न होता है, सूर्यको सूर्यमण्डलाकारका चिह्न, ग्रहको ग्रहमण्डलाकारका, नक्षत्रको नक्षत्रमण्डलाकारका और ताराको तारामण्डलाकारका चिह्न होता है। __ये सब विमान ही होते हैं। परन्तु कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले सूर्यादि पांचों स्वतः देवस्वरूप ही हैं, ' तो यह समझ अज्ञान रूप है। साथ ही चन्द्र के विमानके नीचे विद्यमान चित्ररूप मृगचिह्नका भी लोग अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ करके अनेक रूपमें परिचय देते हैं। परन्तु प्रत्यक्ष रूपमें दिखते जिन ज्योतिषीयोंको आकाशमें हम देखते हैं वे सब तो विमान ही हैं। उनके तथाविधके कर्मोदयसे तेजस्वी होनेके कारण हम उन्हें दूरसे देख सकते हैं। सूर्य-चन्द्रादि देव और उनका अन्य देव-देवीपरिवार तो उन विमानों में स्थित है। सर्वज्ञ भगवन्तका शासन तो यही प्रतिपादन करता है कि चन्द्रमाके विमानकी पीठिकाके नीचे
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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