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________________ 118 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 53-54 चढाई-उतराईमें स्थित हैं कि उस शिखरके भाग भी लगभग गोलाकार १३४बन जाते हैं अर्थात् (चित्र देखिए) और इसलिए दूर होनेके कारण उदयास्तसमय पर गोलाकार ही दिखता है। . ये स्फटिकरत्नमय विमान अत्यन्त तेजस्वी, जगमगाते प्रकाशवाले, रमणीय, चक्षुओं तथा मनको अत्यन्त आह्लाद देनेवाले और पूर्व वर्णित व्यन्तरनगरोंकी संख्यासे संख्यागुने अधिक हैं। उन ज्योतिषीयोंके सर्व विमान स्फटिकरत्नमय होते हैं / और लवणसमुद्र में विद्यमान ज्योतिषीयोंके विमान उदकस्फटिकमय कहलाते हैं। ... प्रश्न-लवणसमुद्रमें कहनेका अथवा उदकस्फटिकमय कहनेका तात्पर्य क्या है ? .. उत्तर-जम्बूद्वीपके चारों ओर लवणसमुद्र है और उसकी चारों ओर धातकी खण्ड होनेसे लवणसमुद्रका जल इस भाग पर जम्बूद्वीपकी जगतीको और सामनेवाले भाग धातकीखण्डकी जगतीको अर्थात् दो द्वीपोंकी दोनों जगतीका स्पर्श करता है, उनमें जम्बूद्वीप द्वारा स्पर्शित जलवाला जो किनारा है वह अभ्यन्तर और धातकीखण्ड द्वारा स्पर्शित जो किनारा है वह बाह्य गिना जाता है। वहाँ जम्बूद्वीपकी जगतीसे स्पर्शित इस अभ्यन्तर किनारेसे 95000 योजन समुद्रमें दूर जाने पर उस स्थानमें जगतीसे समुद्रकी भूमि अनुक्रमसे नीची नीची उतरती हुई 1000 योजन गहरी हो जाती है। वैसे ही धातकीखण्डकी जगतीके ओरसे जम्बूद्वीपकी जगतीकी दिशाकी तरफ 95000 योजन समुद्र में आ जाने पर उस स्थानमें भी पूर्वकी तरह 1000 योजन गहराई हो जाती है; यद्यपि जम्बूद्वीपकी तथा धातकीखण्डकी जगतीके पास स्पर्शित जल तो योजनके असंख्याता भागप्रमाण गहरा होता है, परंतु आगे बढ़ने पर गहराई बढ़ती जाती होनेसे मध्यके दस हजार योजनमें 1000 योजन गहराई होती है। अतः लवणसमुद्र के दो लाख योजनके विस्तारमेंसे दोनों बाजूके 95000 योजन कम करें तब अति मध्यभागमें 10000 योजन विस्तार शेष रहता है और उतने विस्तीर्णभागमें 1000 योजनकी गहराई चारों बाजु पर समान रूपमें होती है / [चित्र देखिए ] ___ अब दोनों बाजु पर जिस तरह 95000 योजन भूमि उतार कहा है उसी तरह 134. इस विषयमें श्रीमान् जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण महाराजा विशेषणवर्ती शंका करके समाधान देते हैं कि;- . प्र०. 'अद्धकविट्ठागारा उदयत्थमणमि किह न दीसंति ? / ससिसूराण विमाणा तिरियक्खित्ते ठियाइं च // 1 // उ० उत्ताणकद्धविट्ठागारं पीढं तदुवरि च पासाओ / वट्टालेखेण तओ, समवढं दूरभावाओ // 2 // '
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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