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________________ कल्पोपपन्न देवोंका दश प्रकार ] गाथा 45 [ 107 तैंतीस ही होनेसे वे 'त्रायस्त्रिंशक' कहलाते हैं। इन देवोंके भी स्वतन्त्र विमान होते हैं। 4. पार्षद्या–पर्षदामें बिठाने योग्य इन्द्रके मित्रसमान देव ‘पार्षद्य' कहलाते हैं / यह पर्षदा अर्थात् सभा तीन प्रकारकी होती है। जघन्य, मध्यम और उत्तम, अथवा बाह्य, मध्यम और आभ्यन्तर / उनमें बैठनेवाले देव पार्षद्य कहलाते हैं। जिस तरह राजशासनमें भी वर्तमानमें लोकसभा, राजसभा और पार्लामेन्टकी व्यवस्था है उसी तरह / 5. आत्मरक्षक-जो इन्द्रोंका रक्षण करनेवाले हों अर्थात् इन्द्र स्वयं शक्तिसंपन्न होनेसे प्रायः निर्भय होते हैं, फिर भी ये आत्मरक्षक देव अपने आचारका पालन करनेके लिये हमेशा शस्त्र, बख्तर आदिसे सज्ज रहनेके साथ इन्द्रके पास हमेशा खड़े रहते हैं। जिन्हें देखते ही शत्रु त्रस्त होते हैं, उन्हें 'आत्मरक्षक' देव कहते हैं। 6. लोकपाल-इन्द्रमहाराजकी आज्ञाके अनुसार निश्चित् विभागका रक्षण करनेवाले और चोरी, जारी आदि अपराध करनेवालोंको यथायोग्य दण्ड देनेवाले 'लोकपाल' कहलाते हैं। [जिसे मनुष्यलोकके 'सूबा'की उपमा दी जा सकती है ] ___. अनीक—यह सैन्य, हाथी [गजानीक ], घोड़ा [ हयानीक ], रथ [ रथानीक ], महिष-भैंसा [महिषानीक ], * पैदल [पदात्यनीक ],. गन्धर्व [गन्धर्वानीक ], नाट्य [नाट्यानीक ] इस तरह सात प्रकारकी सैन्यदल आवश्यकता होने पर बैंक्रिय शक्तिद्वारा रूपोंको रचकर सैन्यका काम करनेवाले वे ‘सैन्यके देव' कहलाते हैं। यहाँ वैमानिकमें अर्थात् सौधर्मसे अच्युत देवलोकमें 'महिष 'के स्थान पर 'वृषभ' समझना। इस हरएक सैन्यके अलग अलग अधिपति होनेसे सात अधिपति होते हैं। प्रथमके पांच सैन्य संग्राममें उपयोगी हैं और गन्धर्व तथा नाट्य ये दोनों उपभोगके साधन हैं। 8. प्रकीर्ण-मनुष्यलोकमें नागरिक लोगोंके समान, प्रजाके समान देव-'प्रकीर्ण' * कहलाते हैं। 9. आभियोगिक--जो नौकर-चाकर आदिके योग्य काममें लगाये जाते हैं वे दासके समान 'आभियोगिक' देव हैं। 10. किल्बिषिक–मनुष्यलोकके चाण्डालोंकी तरह अशुभ-निन्द्यकर्म करनेवाले 'किल्बिषिक ' देव कहलाते हैं। भवनपति और वैमानिकमें ये दस प्रकारके देव हैं, जब कि व्यन्तर तथा ज्योतिषीमें त्रायस्त्रिंशक और लोकपाल देवोंके अतिरिक्त आठ प्रकारके देव हैं, अर्थात् पहले बताये गये दस प्रकारमें समाविष्ट त्रायस्त्रिंशक और लोकपाल देव व्यन्तर और ज्योतिषीमें नहीं हैं। वहाँ वैसी व्यवस्थाकी अपेक्षा नहीं है। [45]
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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