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________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 287 भगिनि ! तुम इस राजकन्या से आज ही मेरी मुलाकात करा दो। अन्यथा अपने प्राण मैं अभी त्याग देता हूँ।' विक्रमचरित्र की बात सुनकर लक्ष्मी कहने लगी कि 'वह राजा की कन्या है / मैं तुम्हें कैसे मिला सकती हूँ ? क्यों कि राजा महाबल ने राजपुत्र धर्मध्वज को कन्या दे दी है।' "जब जल वह कर चला जाय तब पुल बाँधने से क्या लाभ ? जब मनुष्य मर जाय बादमें औषध देने से क्या लाभ ? इसी प्रकार जब मुंडित होकर संन्यासी हो गये बादमें मुहूर्त पूछना व्यर्थ ही है / जो वस्तु हाथ से चली गई उसके लिये शोक करना निरर्थक ही है।"X 'बराती भी आ पहुँचे हैं और आज ही पाणिग्रहण का दिन है, अतः इस समय यह आप की अभिलाषा पूर्ण होना असम्भव है।' लक्ष्मी की इसप्रकार की बात सुनकर विक्रमचरित्र ने शीघ्र ही हाथ में तलवार ली और अपने वक्ष स्थल में मारने को तैयार हुआ, इतने में लक्ष्मी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली कि 'मैं तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने का प्रयत्न करूँगी / तुम स्थिर चित्त बनो, उद्विग्न मत बनो / इस प्रकार विक्रमचरित्र को आश्वासन देकर लक्ष्मी 4 गते जले कः खलु सेतुबन्धः किं वा मृते चौषधदानकृत्यैः। मुहूर्तपृच्छा किमु मुण्डिते का हस्ताद् गते वस्तुनि किं हि शोकः // 30 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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