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________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित अन्येषां तु मनोरथैः परिचितपासाद-वापीतटक्रीडाकाननकेलिमण्डनजुषामायुः परं क्षीयते // 67 // अर्थात् परमात्मा के ध्यान के लिये पहाड़ की गुफा में बसते हुए जिस श्रेष्ठ तपस्वियों के आनन्दाश्रु जल उनके गोद में बैठकर पक्षी पीते हैं वे धन्य हैं / और दूसरे जो कि अपने मनोरथ से अच्छा महल तथा बापी-नीर में क्रीडासक्त और वन-उपवन में केलि करने वाले हैं, उनकी तो आयु व्यर्थ ही क्षीण होती है। संन्यासस्वीकृति यह विचार करते करते परमज्ञानसागर में मग्नचित्त राजा भर्तृहरि को संसार से वैराग्य हो गया और तृगवत् राज्य को शीघ्र छोड़कर उसने उत्तम योग यानी संन्यास स्वीकार किया। बड़े बडे चक्रवर्ती राजा अपने विशाल राज्य और समृद्धि को एक क्षण में तृणवत् समझकर छोड़ देते हैं, पर एक अज्ञानी भिखारी दमड़ी का खप्पर भी नहीं छोड़ सकता / कहने का अभिप्राय यही कि-'जो कर्म में शूरवीर होते हैं वे धर्म में भी शूरवीर होते हैं।' ... इसके बाद सम्पूर्ण राज्य में इनके वैराग्य के कारण प्रजा तथा राज्याधिकारियों में सन्नाटा छा गया और प्रजा अनेक तरहकी बातें: करने लगी। मन्त्रीवर्गकी विनति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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