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________________ प्राप्ति का उपाय भी करता है तो उसे ही भद्रध्यान समझना चाहिये। इस अवस्था में अपनी इच्छानुसार भोगों को भोगते हुए जो धर्म के विषय में विचार करता रहता है वही भद्र ध्यानी होता है। भद्रध्यान का कथन अन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। आचार्य देवसेन स्वामी ने यह ध्यान इसलिये प्रदर्शित किया है, क्योंकि उनका मानना है कि गृहस्थ के धर्म्य ध्यान की साधना आसान/सहज नहीं है। परन्तु जो भी पाप बन्ध वह गहस्थ आर्तध्यान और रौद्रध्यान से अर्जित करता है, उनको यह अपने सदज्ञान और भद्रध्यान से नाश कर सकता है।' अब ध्यान के भेदों के स्वरूपों को प्ररूपित करते हैं आर्त ध्यान - सामान्य से ध्यान पद का प्रयोग पारमार्थिक योग और समाधि के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है। किन्तु यथार्थतः आचार्यों का कथन है कि किसी भी शुभ और अशुभ परिणाम में एकाग्रता ध्यान कहलाता है। आर्तध्यान अशुभ परिणामों की एकाग्रता से उत्पन्न ध्यान है। आर्तध्यान के स्वरूप का वर्णन हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि - 'आर्त' शब्द तो 'ऋत' पद से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ होता है पीड़ा। इसका आशय यह है कि दु:ख को उत्पन्न करने वाला ध्यान आर्त ध्यान कहलाता है। यह ध्यान मिथ्याज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। इसके दो भेद आचार्यों ने वर्णित किये हैं वे - बाह्य और आभ्यन्तर हैं। जो अन्य लोगों के द्वारा अनुभव किया जाता है वह बाह्य आर्तध्यान कहा जाता है। परिग्रह में आसक्ति, कुशील में प्रवृत्ति, धार्मिक एवं सामाजिक तथा आत्मिक (निजी) विषयों में कृपणता, अतिलोभ, भीति (भय), उद्विग्नता, महान् शोक इत्यादि ये सब आर्तध्यान के बाह्य चिह्न हैं। जो स्वयं ही ज्ञात हो सकता है वह आन्तरिक आर्तध्यान कहलाता है। इसी के स्वरूप को प्रदर्शित कहते हुए आचार्य शुभचन्द्र स्वामी कहते हैं कि - ऋते भवमथार्तं स्यादसध्यानं शरीरिणाम्। दिङ्मोहोन्मत्तता तुल्यमविद्यावासनावशात्॥ भा. सं. 364 स. सि. 9/28/445 249 Jain Education International For Personal & Private Use Only www ainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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