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________________ कर्तृत्व में व्यक्तित्व उपाध्याय यशोविजय का जीवन विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में विश्व में विख्यात है। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व उनकी कृतियों में प्रकाशित है। उनकी कृतियों के आधार पर उनकी परोपकार परायणता, नम्रता, निरभिमानता, दार्शनिकता, समदर्शिता, समन्वयवादिता, उदारता, भवविरहता आदि गुणों से युक्त व्यक्तित्व विकसित रहा है। निरभिमानता या लघुता ग्रंथ रचना में उन्होंने अपना बड़प्पन अथवा मतिकौशल का अभिमान कहीं भी प्रस्तुत नहीं किया। हमेशा पूर्वाचार्यों, गुरु-उपदेशों तथा आगमों को अपने नेत्र के समक्ष रखकर ग्रंथ रचना की। यही बात उनके अध्यात्ममतपरीक्षा ग्रंथ के प्रथम श्लोक से ज्ञात होती है पणमिय पासजिणिंद वंदिय सिरिविजय देव सूरिन्दं / अज्झप्पमय परिकरवं जहबोहमिमं करिस्सामि / / * श्री पार्श्वनाथ भगवान को प्रणाम करके, विजयदेवसूरि को वंदन करके, पूर्वाचार्य द्वारा की हुई प्ररूपणा से एवं शास्त्र सिद्धान्त के ऊहापोह से प्राप्त बोध या अनुसरण करके अध्यात्ममत की परीक्षा करूंगा। कहीं-कहीं तो उन्होंने अपने अहंभाव का इतना त्याग कर दिया कि यह मैं नहीं कहता लेकिन योगविद् तत्त्वविद् मनीषी कहते हैं। वो अपना सम्पूर्ण श्रेय अपने गुरु पर छोड़ते हैं। "गुरतत्त्वविनिश्चय"47 नामक ग्रंथ में इस रहस्य को उद्घाटित करते हुए कहते हैं कि अम्हारिसा वि मुकखा, पंतीए पडिआण पविसंति। अण्णं गुरभतीए किं, विलसिअमब्मुअं इतो।। तात्पर्यार्थ-मेरे जैसे मूर्ख का नाम आज ग्रंथकार की गिनती में आ रहा है, उनसे अधिक गुरुभक्ति का प्रभाव दूसरा क्या हो सकता है? अद्वितीय गुरुभक्ति एवं नम्रवृत्ति का साक्षात् उदाहरण है। छोटी-से-छोटी तीन कड़ी की पंक्ति में भी अपने गुरु को भूले नहीं हैं। उत्कृष्ट चारित्र पालन के बाद भी अपने को 'संविज्ञ पाक्षिक' से अधिक नहीं मानते हैं। ऐसे उत्कृष्ट पवित्र पात्र को देखकर माँ सरस्वती प्रसन्न हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। उन्होंने अपनी लघुता बताते हुए न्यायलोक में भी .बताया है कि अस्मादृशां प्रमादग्रस्तानां-चरण-करण हीनानाम् / अब्धो पोत इव प्रवचनरागः तरणोपायः।। प्रमादग्रस्त और चरण-करण से शून्य-मेरे लिए जिनप्रवचन का अनुराग ही समुद्र तिरने का एकमात्र उपाय है। नम्रता-शिष्टाचारिता प्रत्येक रचना में इन्होंने अपने को परमात्मा के चरणों में समर्पित बनाकर ही नमस्कार पूर्वक ग्रंथ का शुभारम्भ किया है। नमस्कार में हमेशा नम्रता होती है और नम्रता में सफलता उदित बनती है अतः ग्रंथ के आदि में परम श्रद्धेय पार्श्वनाथ परमात्मा को, सन्मार्ग दर्शन गुरुओं को प्रणाम करके सविनयता 15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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