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________________ रहस्यवाद ईश्वर के साथ व्यवहार करने का मार्ग है। दूसरे शब्दों में, वह ईश्वर की उपासना, साधना का एक प्रकार मात्र है। चार्ल्स बेनेट रहस्यवाद को जीवन की पद्धति के रूप में स्वीकार करते हुए लिखते हैं-"रहस्यवाद का अर्थ कभी विचारप्रधान रहस्यवाद किया जाता है और उसे एक ऐसा दार्शनिक मत मान लिया जाता है, जो परमात्मतत्त्व की मात्र एकता का तथा विभिन्न जीवात्माओं और सीमित पदार्थों के उसमें विलीन हो जाने का प्रतिपादन करता है। परन्तु ऐसे सिद्धान्तों के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है। हम रहस्यवाद को जीवन की एक ऐसी पद्धति के रूप में देखते हैं, जिसका मुख्य अंग ईश्वर का अव्यवहित अनुभव कहा जा सकता है।"57 भारतीय विद्वानों के अनुसार रहस्यवाद की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-डॉ. महेन्द्रनाथ सरकार रहस्यवाद को तर्कशून्य माध्यम बताते हुए लिखते हैं-"रहस्यवाद सत्य और वास्तविक तथ्य तक पहुंचने का ऐसा माध्यम है, जिसे निषेधात्मक रूप में तर्कशून्य कहा जा सकता है।"58 किन्तु. डॉ. राधाकमल मुकर्जी रहस्यवाद को न केवल किसी एक साधन के रूप में अपितु एक विशिष्ट कला के रूप में भी परिभाषित करते हैं। उनके अनुसार, "रहस्यवाद भीतरी समायोजन विषयक वह कला है, जिसके द्वारा मनुष्य विश्व का, उसके विभिन्न अंगों की जगह उसमें अखण्ड रूप में बोध करता है।"59 रहस्यवाद को मात्र साधन और कला के रूप में ही नहीं, प्रत्युत् जीवन पद्धति के रूप में व्याख्यायित करने वाले विद्वानों में स्व. वासुदेव जगन्नाथ कीर्तिकर एवं डॉ. राधाकृष्णन् हैं। स्व. वासुदेव कीर्तिकर का कथन है कि रहस्यवाद एक आचार प्रधान अनुशासन है, जिसका लक्ष्य उस दिशा को प्राप्त कर लेना रहता है, जिसे किसी यूरोपीय रहस्यवादी के अनुसार मनुष्य का ईश्वर के साथ मिलने अथवा अपने अन्दर रही हुई आत्मानुभूति को उपलब्ध करना या ब्रह्म के साथ एकता का अनुभव करना कहा जाता है....यह तत्त्वतः और मूलभूत रूप में एक वैज्ञानिक श्रद्धा है और सभी तरह से व्यावहारिक भी है। इसी प्रकार डॉ. राधाकृष्णन् रहस्यवाद के मानवीय प्रवृत्ति का एक सतत अभ्यास सिद्ध करना चाहते हैं, जिसका परिणाम आध्यात्मिक तत्त्व की उपलब्धि है। अन्यत्र भी उन्होंने कहा है कि हिन्दू धर्म एक विचारधारा की अपेक्षा एक जीवनपद्धति है। जहाँ विचार के क्षेत्र में वह स्वतन्त्रता प्रदान करता है, वहीं व्यवहार के क्षेत्र में कोई कठोर आचार-संहिता भी निर्दिष्ट कर देता है। उपर्युक्त दोनों परिभाषाएँ रहस्यवाद को धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र तक ही सीमित रखती है। डॉ. एस.एन. दासगुप्ता के अभिमतानुसार "रहस्यवाद कोई बौद्धिकवाद नहीं है, यह मूलतः एक सक्रिय, रूपात्मक, रचनात्मक, उन्नायक तथा उत्कर्षप्रद सिद्धान्त है। .....इसका अभिप्राय जीवन के उद्देश्यों तथा उसके प्रश्नों को उससे कहीं अधिक वास्तविक और अन्तिम रूप से आध्यात्मिक रूप में ग्रहण कर लेना है जो कि शुष्क तर्क की दृष्टि से कदापि समझा नहीं जा सकता है।...... रहस्यवादपरक विकासोन्मुख जीवन का अर्थ आध्यात्मिक मूल्य, अनुभव तथा आदर्शों के अनुसार कल्पित सोपान द्वारा क्रमशः ऊपर चढ़ते जाना है। इस प्रकार अपने विकास की दृष्टि से बहुमुखी भी है और यह उतना ही समृद्ध होता है, जितना स्वयं जीवन के लिए कहा जा सकता है। इस दृष्टिकोण से देखने पर रहस्यवाद सभी धर्मों का मूल आधार बन जाता है और यह विशेषतः उन लोगों के जीवन में उदात्त होता दिख पड़ता है, जो वस्तुतः धार्मिक होते हैं। यद्यपि डॉ. दासगुप्ता की यह व्याख्या रहस्यवाद का मूल स्रोत, कार्य, पद्धति, स्वरूप और आदर्श का स्पष्टीकरण करती है, फिर भी इसमें रहस्यात्मक भावना का समावेश नहीं हुआ है। अतः परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार-रहस्यवाद एक ऐसा जीवन-दर्शन है, जिसका मूल 484 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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