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________________ भगवद्गीता में इस शब्द का विशेष प्रयोग दृष्टिगत होता है। यहाँ एकान्त अर्थ में 'योगी युज्जीत सततं आत्मानं रहसि स्थितः। तथा मर्म अर्थ में 'भक्तोसि में सरवा चेति रहस्यं हयेतदुकतम' और गुह्यार्थ में 'गुह्यद गुह्यतर', 'सर्व गुह्यतम्', 'परम गुह्य तथा आध्यात्मिक उपदेश के अर्थ में 'परम गुह्यमध्यातम् संज्ञितम्' इत्यादि द्रष्टव्य है। जिस प्रकार वैदिक साहित्य में 'रहस' शब्द का प्रत्यय पाया जाता है, उसी तरह जैनागम नाया गम्मकहाओ," उत्तराध्ययन, पन्नावागरणं, सूयगडो," रायपसेणी, दसवैकालिक, औपपातिक," उवासगदसांग," ठाणं इत्यादि में भी रहस्य शब्द व्यवहृत हुआ है और उनमें इसका अर्थ गुप्त बात, छिपी हुई बात, प्रच्छन्न, गोप्य, विजन, एकान्त, अकेला, गूढ, इस्व, अपवाद स्थान आदि किया गया है। किन्तु रहस्य शब्द का अर्थ केवल एकान्त, गोप्य या गुह्य विषय ही नहीं है, प्रत्युत् इसका आध्यात्मिक क्षेत्र में एक विशेष अर्थ है और वह विशेष अर्थ भी हमें जैन साहित्य में मिलता है। ओघनियुक्ति में रहस्य शब्द.का प्रयोग परम तत्त्व के रूप में हुआ है। ओघनियुक्ति में परम रहस्य शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि आध्यात्मिक विशुद्धि से युक्त ऋषियों द्वारा प्रणीत समस्त गणिपिटक (जैन आध्यात्मिक साहित्य) का सारतत्त्व आत्म-साक्षात्कार है। यही परम रहस्य है। - वृत्तिकार ने रहस्य शब्द का अर्थ तत्त्व भी किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि परमतत्त्व या आत्मत्व ही रहस्य है। स्वयं उपाध्याय यशोविजय ने भी स्पष्ट किया है कि रहस्यानुभूति आध्यात्मिक विशुद्धि से युक्त ज्ञानीजनों को ही प्राप्त होती है। यह आत्मबोध या रहस्यानुभूति निश्चय अर्थात् सत्ता के शुद्ध स्वरूप के अवलम्बन से ही उपलब्ध होती है। निश्चयनय के आधार पर तत्त्व का साक्षात्कार करने वाला ऐसा - साधक व्यावहारिक नियमों के परिपालन में सजग होता है। तात्विक अनुभूति गूढ़ होती है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति बाह्य जीवन में आवश्यक है। जो लोग परम तत्त्व की अनुभूति को वस्तुतः प्राप्त न करके निश्चय या रहस्यात्मकता की बात करते हैं, उन्हें ओघनियुक्तिकार ने बाह्य व्यवहार को नाश करने वाला ही कहा है। रहस्यवाद शब्द का प्रयोग रहस्य भावना प्राचीन है, किन्तु रहस्यवाद शब्द अर्वाचीन है। हिन्दी साहित्य में इस शब्द का प्रयोग आधुनिक काल की ही उपलब्धि कहा जा सकता है, क्योंकि प्राचीन भारतीय वाङ्मय एवं मध्यकालीन " सन्तों की वाणी में यह शब्द इसी रूप में प्रयुक्त नहीं है। वैसे भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद से लेकर उपनिषद्, गीता, जैनागमों आदि में रहस्य का प्रत्यय आध्यात्मिक अर्थ में उपलब्ध है। आगे चलकर इस प्रत्यय का सुविकसित रूप हमें सिद्धों और नाथपंथियों के साहित्य में तथा मध्ययुगीन कबीर आदि निर्गुण सन्तों की वाणी में परिलक्षित होता है। लेकिन आधुनिक युग में हिन्दी काव्यशैली के क्षेत्र में इस शब्द ने स्वतंत्र रूप से एक वाद का ही रूप धारण कर लिया, जो रहस्यवाद के नाम से प्रचलित हुआ। इस प्रकार रहस्यवाद शब्द नितान्त आधुनिक होते हुए भी एक सुस्थापित प्राचीन परम्परा का विकास है। हिन्दी भाषा में इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने काव्य-रचना शैली के प्रसंग में ई. सन् 1927 में सरस्वती पत्रिका के मई अंक में किया। रहस्यवाद को अंग्रेजी में Misticism कहा जाता है। संभवतः हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद शब्द का प्रयोग मिस्टिसिज्म के अनुवाद के रूप 480 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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