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________________ बाईजी शब्द मालवे में माता के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि उत्तरप्रदेश में वेश्या के लिए। अतः बाईजी से माता का अर्थबोध मालवे में व्यक्ति के लिए सत्य होगा, किन्तु उत्तरप्रदेश में व्यक्ति के लिए असत्य। 2. सम्मत सत्य-सम्मत सत्य भाषा को व्याख्यायित करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि णाइकक्रमितु रुढिं जा जोगत्येण णिच्छयं कुणइ। सम्मय सच्चा एसा, पंकयभाषा जहा पउमे।।24।। अर्थात् सम्मत सत्य भाषा वह होती है, जो रूढ़ि का उल्लंघन करके सिर्फ योगार्थ से ही वस्तु का निश्चय कराये, जैसे-पद्य में पंकज शब्द। वस्तु के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग करना सम्मत सत्य है, जैसे-राजा, नृपति, भूपति आदि एवं घट, कलश, कुम्भ आदि। यद्यपि ये व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अर्थों के सूचक हैं। जनपद सत्य एवं सम्मत सत्य प्रयोग सिद्धान्त Use Theory से आधारित अर्थबोध के सूचक हैं। . 3. स्थापना सत्य-स्थापना सत्य भाषा को व्याख्यायित करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि ठवणाए वटुंती अपगयभावत्थरहियसंक्रया। ठवणासच्चा भन्नइ जह जिणपडिमाइ जिणसहो।।25।।" अर्थात् जिस भाषा का संकेत भावार्थ से शून्य में है, ऐसी भाषा जब स्थापना में प्रवर्तमान होती है, तब स्थापना सत्य भाषा कही जाती है, जैसे कि-जिन प्रतिमा में जिन शब्द। शतरंज के खेल में प्रयुक्त विभिन्न आकृतियों को राजा, वजीर आदि नामों से संबोधित करना स्थापना सत्य है। इसमें वस्तु के प्रतिबिम्ब या स्थानापन्न को भी उसी नाम से संबोधित किया जाता है, जैसे-महावीर की प्रतिमा को महावीर कहना। 4. नाम सत्य-नाम सत्य को परिभाषित करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि भावत्यविहूणच्चिय; णामाभिप्पायल षसरा खा। सा होइ णामसच्चा, जह धणरहिओवि घणवंतो।।26 118 अर्थात् नाम के अभिप्राय से ही जो भाषा भावार्थ रहित में ही प्रवृत्त होती है, वह भाषा- नाम सत्य भाषा है, जैसे कि धनरहित भी नाम से धनवान कहा जाता है। गुण निरपेक्ष मात्र दिये गये नाम के आधार पर वस्तु को सम्बोधित करना, यह नाम सत्य है। एक गरीब व्यक्ति को भी लक्ष्मीपति नाम दिया जा सकता है। एक अभण व्यक्ति को भी सरस्वती नाम दिया जा सकता है, उसे इस नाम से पुकारना नाम सत्य है। 5. रूप सत्य-रूप सत्य भाषा को परिभाषित करते हुए उपाध्यायजी ने कहा है एमेव रूपसच्चा णवरं णामामि रुवअभिलावो। ठवणा पुण ण पवट्टई तज्जातीए सदोषे च।।27।। अर्थात् नामसत्य की तरह रूपसत्य को जानना चाहिए। सिर्फ नाम के स्थान में रूप शब्द का अभिलाप-प्रयोग करना होगा। रूपसत्य भाषा के विषय में, जो कि तज्जातीय और दृष्ट है, स्थापनासत्य भाषा प्रवृत्त नहीं होती है। 440 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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