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________________ द्रव्यभाषात्व की उपपति भी हो सकती है। अतः द्रव्यभाषा लक्षण यथार्थ है। अन्य शास्त्रों के साथ विरोध की क्या बात करें, अगर ग्रहणादि तीनों भाषास्वरूप से ही द्रव्यभाषा हैं, न कि विवक्षा से द्रव्यभाषा-ऐसा अभिप्राय स्वीकार किया जाए तो भगवती सूत्र के साथ भी विरोध आयेगा। देखिए भगवती सूत्र में वीर प्रभु ने गौतम स्वामी से कहा-भाषणकाल में ही भाषा होती है, भाषण के पूर्व काल में या पश्चात् काल में नहीं। यहाँ स्वयं भगवंत ने ही भाषणकाल में भावभाषात्व का विधान किया है। यदि भाषणकाल में भावभाषात्व का विधान न माना जाए तो शब्दोच्चारण के पूर्व काल में और पश्चात् काल में भाषा नहीं होती है। यह निषेध अनुपपन्न रह जायेगा। अतः भाषणकाल में ही भावभाषा ही होती है-यह स्वीकार आवश्यक है। भाषणकालीन भाषा कहो या निःसर्गकालीन भाषा कहो, या निसरण भाषा कहो, अर्थ में कोई फर्क नहीं है। निसरण भाषा में स्वरूपता द्रव्यभाषात्व की उपपति आपके अभिप्राय के अनुसार नामुमकिन होने से यह मानना होगा कि ग्रहणादि तीन भाषा विवक्षा से ही द्रव्यभाषा है। भाष्यमाण भाषा भाष्यमाण भाषा अर्थात् भाषण काल में ही भाषा होती है। यहाँ भी भास धातु से जो अर्थ बताना है, वही अर्थ भाषा पद भी बता रहा है। अतः भाषापद् के सन्निधान में भाषण अर्थ वाले भाष धातु का अर्थ केवल प्रयत्न विशेष ही है। यहाँ भाष धातु कृतिविशेष बोधक होने से ही इस प्रयोग की उपपति हो सकती है। उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य ग्रंथ में बताते हुए कहा है-भाष्यमाण भाषा का अर्थ होगा-'वर्तमानकालीन प्रयत्नविषयिणी भाषा' / अर्थात् सांप्रतकालीन जो प्रयत्न है, इसका विषय भाषा है। इस व्यवस्था के अनुसार ही लोक प्रसिद्ध, जैसे-वाचमुच्चस्ति इत्यादि, प्रामाणिक प्रयोग की भी उपपति हो सकती है। इस व्यवस्था के अस्वीकार में कथित प्रयोग की उपपति कदापि सम्भव नहीं है। उपर्युक्त व्यवस्था के स्वीकार किए बिना वाचमुच्चयति का अर्थ यह प्राप्त होता है कि वाक्कर्मक-वर्तमानकालीन-वागनुकूलकृतिमान (चैत्रादि) जो कि पुनरुक्ति दोषयुक्त होने से अयुक्त हैं जबकि पूर्वोक्त-व्यवस्था का स्वीकार करने पर वाक्कर्मक-वर्तमानकालीन कृतिमान (चैत्रादि)-यह अर्थ प्राप्त होता है जो संगत प्रतीत होता है। उक्त व्यवस्था से ही इस लौकिक प्रयोग की उपपति भी हो सकती है। लोग भी यह व्यवस्था होने के कारण वाचमुच्चरति इत्यादि वाक्य का प्रयोग करते हैं। अंतः भाष्यमाण भाषा यह सिद्धान्त वचनप्रयोग की दृष्टि से भी शुद्ध ही है, अशुद्ध नहीं। यह भाषा लक्षण. अव्याप्तिदोषग्रस्त है-भाष्यमाणैव भाषा अर्थात् वक्ता जब शब्दोच्चारण करता है, तभी वह भाषा है, अन्यथा नहीं। यह भाषा का लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित है। निसरण.भाषा के दो भेद हैं-1. भिन्न भाषाद्रव्य, 2. अभिन्न भाषाद्रव्य। दोनों ही भाषारूप होने से लक्ष्य ही हैं। निसरणभाषारूप लक्ष्य के एक देशभूत अभिन्न भाषाद्रव्य में बताया गया भाषालक्षण नहीं जाता है, क्योंकि अभिन्न भाषाद्रव्य अपने आरम्भ-उत्पत्तिकाल-निसर्गकाल के बाद शब्द परिणाम का त्याग करते हैं। अतः निसर्ग के दूसरे समय में वे भाषारूप नहीं हैं और जब वे आरम्भकाल में शब्दोच्चारण काल में भाषा स्वरूप हैं तब इनमें भाष्यमाण भाषा यह लक्षण जाता है; मगर अभिन्न भाषाद्रव्य में जो कि अपने निसर्गकाल-आरम्भकाल के बाद तीन समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होता है, भाष्यमाण भाषा यह लक्षण नहीं जाता है। भाष्यमाणत्व यानी वर्तमानकालीन कृतिविषयत्व सिर्फ आरम्भकाल में ही भिन्न भाषा द्रव्य में रहता है जबकि शब्द परिणाम तो आरम्भकाल के बाद भी रहता है। भिन्न भाषाद्रव्य 4 समय 432 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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