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________________ शब्द की परिभाषा शब्द ध्वनि संकेत है; फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सभी प्रकार की ध्वनियाँ शब्द नहीं कही जा सकती हैं। भाषा के सन्दर्भ में शब्द का तात्पर्य वर्णात्मक (अक्षरात्मक) सार्थक ध्वनि संकेत से है। अभिधान राजेन्द्रकोश में शब्द को जैनाचार्यों द्वारा दी गई कतिपय परिभाषाओं का उल्लेख हुआ है। सामान्यतया श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य वर्गों को नियत क्रम में होने वाली ध्वनि को शब्द कहा जाता है। यद्यपि शब्द की यह परिभाषा उसमें समग्र स्वरूप का प्रतिपादन नहीं करती है, क्योंकि शब्द मात्र वर्गों को नियत क्रम में होने वाली ध्वनि नहीं है किन्तु अर्थबोध भी उसका अपरिहार्य तत्त्व है। वर्णों की नियत क्रम से होने वाली ध्वनि से अर्थबोध होता है। इसमें निम्न बातें आवश्यक हैं 1. ध्वनि का वर्णात्मक या अक्षरात्मक होना, 2. उसका नियत क्रम में होना और 3. उसके द्वारा अर्थबोध का होना। शब्द के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि-'शब्द्यते प्रतिपाद्यते वस्तत्वनेनेति शब्दः' अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ या वस्तु का प्रतिपादन होता है, वही शब्द है।' शब्द की इस परिभाषा की पुष्टि पतंजलि के महाभाष्य की वृत्ति से भी होती है। उसमें कहा गया है-अथ गौरित्यत्र कः शब्दा? गकारौकार विसर्जनीयाः इति भगवानुपवर्षः। श्रोतग्रहणे हयर्थे शब्दशब्दा प्रसिद्धः। यद्येवमर्थप्रत्ययो नोपपद्यते। अतो गकारादिव्यतिरिक्तोऽन्धोः गोशब्दोऽस्ति यतोऽर्थ प्रतिप्रति स्यात्। अर्थात् शब्द उस ध्वनि समूह को नहीं कहते, जिनमें संयोग से तथाकथित शब्दरूप बनता है, बल्कि शब्द वह है, जिसमें किसी अर्थ का विनिश्चय या प्राप्ति होती है। वस्तुतः शब्द अर्थ का प्रतिपादक होता है। वाच्यार्थ का प्रतिपादन ही शब्द की शक्ति है। यदि उससे वस्तुत्व का प्रतिपादन नहीं होता है तो वह निरर्थक ध्वनि ही होगी। सार्थक ध्वनि ही शब्द कही जाती है। भर्तृहरि ने शब्दों . को अर्थ से अवियोज्य माना है। जैनाचार्य ने भी शब्द और अर्थ में अवियोज्य सम्बन्ध तो माना है, फिर भी वे उनमें तदरूपता या तादात्म्य सम्बन्ध नहीं मानते हैं, मात्र वाच्यवाचक सम्बन्ध मानते हैं। यहां हमारा प्रतिपाद्य यही है कि वस्तु वाच्यत्व ही शब्द का वास्तविक धर्म है। जैन दर्शन के अनुसार शब्द वह है, जिसमें वाच्यार्थ की सांकेतिक शक्ति है। वाच्यत्व का गुण शब्द में है किन्तु उसका वाच्य उससे भिन्न है। शब्द वाचक है और वस्तु वाच्य है। . भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण यह कहना अत्यन्त कठिन है कि भाषा का प्रारम्भ कब हुआ और किसने किया? जैन साहित्य में भी भगवान ऋषभदेव को लिपि का आविष्कर्ता बताया गया है, भाषा का नहीं। जहाँ तक भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न है, हमें जैन साहित्य में कहीं भी ऐसा उल्लेख देखने में नहीं आया, जिसमें यह बताया गया हो कि भाषा का प्रारम्भ अमुक व्यक्ति या अमुक समय में हुआ। जैन आगम प्रज्ञापनासूत्र में भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न उठाया गया है, उसमें गौतम ने महावीर के सम्मुख भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में निम्न चार प्रश्न उपस्थित किये हैं भासा णं भंते! किमारिया, किंपवहा, किसठिया, किंपज्जवसिया? गोयमा! 418 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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