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________________ शास्त्ररूपी स्वर्ण की छेद-परीक्षा का वर्णन करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं विधीनां च निषेधाना, योगक्षेमकदी क्रिया। वज्यंते यत्र सर्वत्र, तच्छास्त्र छेदशद्धिमत् / मुनि यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् की टीका अध्यात्म वैशारदी में कहा है-अन्य दार्शनिकों के शास्त्रों में उत्सर्ग का प्रयोजन अलग और अपवाद का प्रयोजन अलग होता है, जैसे-छान्दोग्योपनिषद् में उत्सर्ग कथन करते हुए कहा है कि किसी भी जीव को मारना नहीं।75 प्रयोजन-दुर्गति का निवारण। शास्त्रों की प्राप्ति होने पर भी अभव्य तथा अचरमावर्ती भव्य जीवों को शास्त्रयोग संभावित नहीं है, क्योंकि जो मोक्ष से जोड़े, वह योग कहलाता है। इसलिए अभव्यादि को मिले हुए शास्त्र भी उनको मोक्ष से नहीं जोड़ सकते हैं। अपुनर्बन्धक मार्गानुसारी जीवों को शास्त्रयोग संभव है, किन्तु शास्त्रयोग शुद्धि संभव नहीं है, क्योंकि उन्हें अभी ग्रन्थ भेद नहीं हुआ है। निर्मल सम्यक्त्व वाला व्यक्ति ही शास्त्रयोग . की शुद्धि को प्राप्त कर सकता है। विशुद्ध शास्त्रयोग तब ही सफल होता है जब साधक ज्ञानयोग की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करे, इसलिए उपाध्याय यशोविजय के अनुसार शास्त्रयोग की विवेचना के बाद अवज्ञानयोग आता है। 2. ज्ञानयोग ज्ञानयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मोह का त्याग ज्ञान से ही होता है। जैसे राजहंस हमेशा मानसरोवर में मग्न रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी हमेशा ज्ञान में ही मग्न रहते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में ज्ञानयोग की व्याख्या करते हुए कहा है-ज्ञानयोग जैसा श्रेष्ठ तप है, आत्मरति उसका एक लक्षण / है। ज्ञानयोग इन्द्रियों के विषयों से दूर ले जाता है, इसलिए ज्ञानयोग मोक्ष सुख का साधक तप है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में ज्ञानयोग का वर्णन करते हुए कहा है कि "प्रातिभज्ञान ही ज्ञानयोग है। यह योगजन्य अदृष्ट से उत्पन्न होता है। जैसे दिवस और रात्रि से संध्या भिन्न है, उसी प्रकार केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से प्रातिभज्ञान भिन्न है। इसे अनुभवज्ञान भी कहते हैं। यह मतिश्रुत का उत्तरभावी तथा केवलज्ञान का पूर्वभावी है। यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् की टीका में योगज अदृष्ट का वर्णन करते हुए कहा हैजो मोक्ष के साथ जोड़े, इस प्रकार की सभी शुद्ध धर्म-प्रवृत्तियों से उत्पन्न हुआ विशिष्ट पुण्यानुबंधी पुण्य पुष्कल कर्म-निर्जरा में सहायक होता है। उसी को योगज अदृष्ट कहते हैं। उसमें प्रातिभ नाम का ज्ञान उत्पन्न होता है, वही ज्ञानयोग है।78 इनके अतिरिक्त भी उपाध्याय यशोविजय ने षोडशक ग्रंथ की योगदीपिका नामक टीका में बताया है कि-प्रतिभा ही प्रातिभज्ञान कहलाती है। यह मतिज्ञान का विशेष स्वरूप है। किन्तु ज्ञानयोग का अधिकारी कौन? अभव्यों के पास भी नौ-पूर्व से कुछ अधिक ज्ञान होता है, किन्तु मिथ्यात्व होने के कारण उनका ज्ञान अज्ञानरूप ही है। अपूर्व बन्धक जीवों का जो बोध है, वह सहजमलहास के कारण ज्ञान के बीजरूप हैं। सम्यग् दृष्टि के पास जो ज्ञान है, वो वास्तविक ज्ञानरूप है। 8 से 12 गुणस्थानक के जीवों के पास रहा हुआ ज्ञान निश्चय ही ज्ञानयोग है। ज्ञानयोग की परिपूर्ण शुद्धि या सार्थकता तो केवलज्ञान में है। 396 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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