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________________ जैन योग साधना शारीरिक कष्टों अर्थात् अनेक प्रकार के तपों पर भी जोर देती है, क्योंकि उनके द्वारा इन्द्रियों के विषयों को स्थिर किया जाता है। इन्द्रियों को स्थिर करने पर मन एकाग्र होकर अनेकविध / धर्म-व्यापारों द्वारा चित्त-शुद्धि, समताभाव आदि गुणों को प्राप्त करता है, जिनसे कि साधक क्रमशः आत्मोन्नति करता हुआ अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करते हुए मोक्षसुख को प्राप्त करता है। योगशुद्धि के कारण योग को प्राप्त करने के लिए हमारे जीवन में सर्वप्रथम उनके कारणों को अर्थात् योगशुद्धि के कारणों एवं योगशुद्धि को भी जानना आवश्यक है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक के अन्दर योगशुद्धि के कारणों को प्रस्तुत किये हैं। ये इस प्रकार हैं ___ निष्पाप ऐसा गमन, आसन, शयन आदि के द्वारा काया की शुद्धि, विचारणा, निष्पाप ऐसे ही वचनों का उच्चारण करने के द्वारा वचनयोग की शुद्धि, विचारणा तथा निष्पाप ऐसे शुभ चिन्तनों से मन शुद्धि, विचारणा अर्थात् धर्म के अविरोधी या उत्तरोत्तर धर्मसाधक ऐसा शुभ चिन्तन यही सत्य योगशुद्धि का कारण है तथा भिन्न-भिन्न गुणस्थानकों की अपेक्षा से योगशुद्धि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टादि भेदों से भी होती है। जैसे कि जिस प्रकार अपना जीव देशविरतिधर बना हो तो उस गुणस्थानक के योग्य जघन्ययोग शुद्धि प्राप्त करता है, उसके पश्चात् मध्यम और उत्कृष्ट, पश्चात् सर्वविरतिवान् आत्मा होता है, वहाँ भी क्रमशः जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट योगशुद्धि प्राप्त करता है। इस प्रकार क्रमशः जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट योगशुद्धि को प्राप्त करना और इस प्रकार क्रमशः विकास होने पर उत्तरोत्तर - गुणस्थान के समीपता की प्राप्ति होती है तथा आरोहण सरल और सफलतादायक बनता है। अन्य दर्शनकार इन तीन प्रकार की योगशुद्धि को प्रकाशान्तर से बताते हैं। वह इस प्रकार है सामुद्रिक शास्त्र अथवा अंगशास्त्रों में वर्णित आकृति द्वारा देहशुद्धि जानना, प्रतिभासम्पन्नता, आकर्षकता आदि कायाशुद्धि के अन्तर्गत आती है। बाहर से दिखने वाली काया की प्रतिभा भी श्रोताओं को गुणवृद्धि और आकर्षण का कारण बनती है तथा वाणी भी गम्भीर, मधुर-अल्पाक्षर तथा आज्ञापक इत्यादि भिन्न-भिन्न अनेक भेदों से उस-उस योग में उचित ऐसी वाग्शुद्धि जानना तथा मैं समुद्र में तैरता हूँ, मैं नदी पार उतरता हूँ, इत्यादि हमेशा अथवा कथंचित् भिन्न-भिन्न उज्ज्वल स्वप्नों को निद्रा में देखने के द्वारा मन की शुद्धि जानना। अन्य दर्शनकारों के मत को प्रस्तुत करके उपाध्याय यशोविजय अपने आशय को बताते हैं कि यह शुद्धि भी हमको मान्य है, परन्तु अन्तर इतना ही है कि यह जो तत्रान्तरीय मान्य योगशुद्धि बाह्य है तथा अत्यावश्यक नहीं है जबकि जैन सम्मत योगशुद्धि अभ्यंतर और जरूरी है एवं यदि उभय योग-शुद्धि हो तो सोने में सुगन्ध के समान स्वीकारने योग्य है। ___ इस प्रकार उस गुणस्थानक के योग की उचितता को स्वीकार करके योग की शुद्ध भूमिका समझनी चाहिए। बाह्य मन, वचन और काया संबंधी शुद्धि भी सुन्दर योगशुद्धि कहलाती है, जो स्वयं को, अन्य को प्राप्त और स्वीकार्य गुणस्थानक में स्थिरता और ऊर्ध्वारोहण कराने वाली है। योगशुद्धि दो प्रकार की है1. 42 पुण्य प्रकृतियों के उदयजन्य, 2. मोहनीय कर्म के क्षयोपशम जन्य। 380 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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