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________________ ____ हम अपने विचारों और वासनाओं के अनुरूप भाग्य निर्माण करते हैं। आज हम जो कुछ हैं, वह हमारे ही पूर्वजन्मों का फल है। हमारी वर्तमान अवस्था के लिए ईश्वर जिम्मेदार नहीं है। हम स्वयं अपनी इस अवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। यदि इस तथ्य को, आत्मा के इस गुप्त रहस्य को अच्छी तरह समझ लें तो अपने भविष्य का ऐसा सुन्दर निर्माण कर सकते हैं कि हमारा पतन तो रुक जाएगा और जब तक कि जीवन के लक्ष्य को प्राप्त न कर लें क्रमशः ऊँचे-ऊँचे उड़ते जाएंगे। आत्मा किसी रहस्यमय शक्तिशाली व्यक्ति की शक्ति और इच्छा के अधीन नहीं है। उसे अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए शक्तिशाली सत्ता का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं है। आम उत्थान के लिए या पापों का नाश करने के लिए हमें किसी भी शक्ति के आगे न तो दया की भीख मांगने की जरूरत है और न उसके सामने रोने, गिड़गिड़ाने या मस्तक झुकाने की। कर्मवार हमें बताता है कि संसार की सभी आत्माएँ एक समान हैं। सभी में एक-सी शक्तियाँ विद्यमान हैं। चेतन जगत् में जो भेदभाव दिखाई पड़ता है, उसका कारण इन आत्मिक शक्तियों का न्यूनाधिक विकास ही है। कर्म कितना बलवान होगा, यह बात केवल कर्म के बल पर निर्भर नहीं है, अपितु आत्मा की पवित्रता पर भी निर्भर है।305 जैसे सुप्रीम कोर्ट के घोषित किये हुए दण्ड में कोई फेरबदल नहीं होता है, ऐसा कानून है। ऐसा कानून होने के बाद भी राष्ट्रपति उस दण्ड को माफ कर सकता है, ऐसा विशिष्ट नियम है। वैसे ही प्रथम से निकाचित कर्म या बाद में बंधे हुए निकाचित कर्म में आठ प्रकार के कारण के द्वारा भी कोई परिवर्तन नहीं होता है। लेकिन जिस तरह कर्मों को बांधा हो, उसी तरह भुगतना भी पड़ता है। फिर भी राष्ट्रपति की तरह श्रेणिगत अध्यवसाय द्वारा, उसी प्रकार के शुक्लध्यान, धर्म यान द्वारा बिना भोगे हुए भी निकाचित कर्म भी क्षय हो सकते हैं। कम्मपयडी की टीका के अनुवाद कर्मप्रकृति में यही बात बताई है।306 अतः कर्म-विज्ञान का विज्ञाता स्वकीय में निराश, हताश और दीन शोकाकुल नहीं बनता है, क्योंकि वह स्पष्ट जानता है कि ईश्वर संज्ञक कोई विशिष्ट दिव्य शक्ति कर्म प्रदायक नहीं है, कर्मफल का विधायक भी नहीं है। प्राणी के पुरुषार्थ के संयोग से कर्मों में एक ऐसी शक्ति निश्चयतः प्रगट हो जाती है कि वे स्वयं ही प्राणी को उसके कृत-कर्मों का फल करवाने में सर्वथा सक्षम है। कर्म स्वयं ईश्वर का प्रतिनिधि भी नहीं है। वह प्राणी के पुरुषार्थ का और उसकी भावनाओं का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है। बहुत कर्मवाद का महारथ भाग्यवाद की वैशाखी पर नहीं परन्तु पुरुषार्थ के राजपथ पर अग्रसर है। . कर्मवाद के अनुसार विकास की सर्वोच्च सीमा को प्राप्त व्यक्ति ही ईश्वर है, परमात्मा है। हमारी शक्तियाँ कर्मों से आवृत्त हैं, अविकसित हैं, परन्तु आत्मबल के द्वारा कर्म का प्रभाव दूर हो सकता है और इन शक्तियों का विकास किया जा सकता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर हम परमात्मस्वरूप को भी प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा प्रयत्न विशेष से परमात्मा बन सकती है। कर्म सिद्धान्त के वैशिष्ट्य से विशिष्ट आत्माएँ बाह्य भौतिक सुख-सुविधाओं से शायद शून्य हो सकती हैं लेकिन आध्यात्मिक आत्म-वैभव से आपूरित रहती हैं। उत्तरोत्तर समुत्थान मार्ग को संप्राप्त करती रहती हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उपाध्याय यशोविजय ने कर्म सिद्धान्त जैसे गम्भीर, गहन और व्यापक विषय को आगमिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषित किया गया, यह उनकी बहुमुखी प्रतिभा का ही सूचक है। - 367 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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