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________________ 5. ज्ञान आसातना-ज्ञान या ज्ञानी की अवहेलना करना। 6. ज्ञान विसंवादन-ज्ञान या ज्ञानी के वचनों में विसंवाद अर्थात् विरोध दिखाना। 2. दर्शनावरण कर्म जो दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व को आवृत्त करे, वह दर्शनावरण कहलाता है। पदार्थ के सामान्य बोध स्वरूप दर्शन की प्राप्ति में अपने प्रभाव से जो रुकावट डालता है, वह दर्शनावरण कहलाता है। जीव के व्यापार के द्वारा आकृष्ट हुई कार्मण वर्गणाओं के अन्तर्गत मिथ्यात्वादि संबंधी कार्मण वर्गणाओं के विशिष्ट पुद्गल समूह का आवरण दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करने वाले बोध को दर्शन कहते हैं __सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि सामान्य ग्रहणात्मको बोधः। दर्शनावरण कर्म द्वारा जीव को पदार्थ के सामान्य रूप का अवलोकन करने वाली शक्ति आवृत्त होती है-चक्षुदर्शनादि सामान्यावबोध वादकत्वात्। दर्शनं चक्षुदर्शनादि। दर्शन का आवरण दर्शनावरण या दर्शनावरणीय कहलाता है। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में दर्शनावरण का वर्णन करते हुए कहा है सामान्यग्रहणात्मको बोधो दर्शन, तदाप्रियतेऽतेनेति दर्शनावरण।" अर्थात् सामान्य ग्रहण स्वरूप बोध को दर्शन तथा उनको आच्छादित करने वाला आवरण दर्शनावरण - कहलाता है। कोश में दर्शन के अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं। लेकिन यहाँ हम दर्शनावरण कर्म के भेदों का विचार कर रहे हैं। अतः दर्शनावरण शब्द में जो दर्शन शब्द है, उसे वस्तु के सामान्य बोध का परिचायक समझना चाहिए। अर्थात् सामान्य विशेषात्मक पदार्थों के आकार रूप विशेष अंश को ग्रहण नहीं करके जो केवल सामान्य अंश का निर्विकल्प रूप से ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं। 2 आत्मा के दर्शन-गुण को जो आच्छादित करता है, वह कर्म दर्शनावरण कहलाता है। दर्शनावरणीय की उत्तर प्रकृतियाँ दर्शनावरण के असंख्यात भेद हो सकते हैं। लेकिन सरलता से समझने के लिए उन असंख्यात भेदों का समावेश मुख्य नव भेदों में हो जाता है निद्रा-निद्रा निद्रा पयला तह होइ पयलपयला य। / थीणट्ठी अ सुरुद्रा निद्रापणगं जिणाभिहिंत।। नयणेयरोहि केवल दंसणवरण चउव्विहं होइ। अर्थात् 1. निद्रा, 2. निद्रा-निद्रा, 3. प्रचला, 4. प्रचलाप्रचला, 5. थीणद्रि, 6. चक्षुदर्शन, 7. अचक्षुदर्शन, 8. अवधिदर्शन, 9. केवलदर्शन। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में दर्शनावरण के उत्तर-भेद को बताते हुए कहा है-चक्षुदर्शनावरणचक्षुदर्शनावरणवधिदर्शनावरणकेवलदर्शनवरण निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचला प्रचला स्त्यानग्धिभेदान्नव दर्शनावरणोत्तर प्रकृतयः।" 338 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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