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________________ जिनका साधारणतया सब दर्शनों में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों ने किसी-न-किसी रूप में अथवा किसी-न-किसी नाम से कर्म की सत्ता को स्वीकार की है।' जैन वाङ्मय में कर्म सिद्धान्त गहन एवं विशाल है। जैन वाङ्मय में कर्म सिद्धान्त की महत्ता बेजोड़ एवं अद्भुत है। देह में प्राण के महत्त्व के समान उसका मूल्य अंकित किया गया है। जैन धर्म एवं दर्शन में कर्म सिद्धान्त केन्द्र में स्थित है। जिस प्रकार कुण्डली में केन्द्र स्थित शुभ ग्रहों का प्रभाव बेजोड़ होता है, जातक के लिए उसी प्रकार केन्द्र में स्थित कर्म सिद्धान्त का प्रभाव भी साधक के लिए बलवतर होता है। कर्म सिद्धान्त के अभ्यास के बिना जैन धर्म का अभ्यास संभव नहीं है। यदि करता भी है तो वह अपूर्णतया ही महसूस करेगा। अतः जैन वाङ्मय में धर्म सिद्धान्त देह पर आभूषणों की भांति शोभाग्यमान हो रहा है। जैन वाङ्मय में कर्म सिद्धान्तों की नींव पर अन्य सिद्धान्तों रूपी महल खड़ा होता है। कर्म की परिभाषा जैन आगमों में धर्म और कर्म इन दोनों शब्दों का प्रयोग प्रचूर मात्रा में हुआ है। ये दोनों शब्द प्राचीन हैं। अनादि काल में कर्मचक्र के पीछे लगा हुआ है तथा जीवात्मा राग-द्वेष की परिणति द्वारा कर्मचक्र को गतिमान करता है। उस कर्मचक्र को हटाने का कार्य धर्मचक्र करता है। 'कर्म' बन्धन का प्रतीक है जबकि 'धर्म' मुक्ति का प्रतीक है। लेकिन जब तक व्यक्ति कर्म तत्त्व को पूर्णतया नहीं समझेगा तब तक वह मुक्ति मार्ग के गूढ़ धर्म तत्त्व को नहीं समझ सकेगा। अतः कर्म के सिद्धान्त से प्रबुद्ध होना आवश्यक है। जगत् में प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वभाव की दृष्टि में एक समान है। फिर भी संसार अनेक विचित्रताओं एवं विविधताओं से भरपूर दृष्टिगोचर होता है, जैसे-कोई पशु-पक्षी है, तो कोई मनुष्य, कोई स्त्री है तो कोई पुरुष। यह सभी भेद क्यों? ऐसी शंका स्वाभाविक हो जाती है। सृष्टि का कर्ता ईश्वर को मानने वाले तो इसका समाधान ईश्वर की इच्छानुसार यह विविधता है। इस प्रकार देखते हैं, जैसे कि ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। अन्यो जन्तुनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयोः।।' ईश्वर के द्वारा भेजा हुआ जीव स्वर्ग में, नरक में जाता है। ईश्वर की सहायता के बिना कोई भी जीव अपने सुख-दुःख को पाने से, उत्पन्न करने में स्वतंत्र भी नहीं है एवं समर्थ भी नहीं है। संसारस्थ सभी जीवों के सुख-दुःख की लगाम भी ईश्वर के अधीन रखी है। ईश्वर ही जैसा रखे, उसको वैसा रहना होगा। ईश्वर की इच्छा पर ही सब कुछ निर्भर है। यहाँ तक कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिल सकता। इस प्रकार अनेक धर्मों एवं दर्शनों ने ईश्वर सत्ता को सृष्टि के साथ मानकर वास्तव में ईश्वर के स्वरूप को विकृत कर दिया है। ईश्वर निर्मित और संचालित विश्व किसी भी तर्क-युक्ति की कसौटी पर सिद्ध हो ही नहीं पा रहा है। ईश्वरकृत संसार को विचित्रता का समाधान अज्ञानी जनों को तृप्त कर सकता है लेकिन प्रबुद्ध जनों की वहाँ प्रवृत्ति नहीं होगी। अर्थात् मेधावीजन उससे संतुष्ट नहीं होंगे। 322 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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