SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार भिन्न-भिन्न नयों के विषय में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता और परिमितता आती जाती है। पूर्ववर्ती नय व्यापक और उत्तरवर्ती नय व्याप्य है। उनमें कारण कार्य की योजना भी की जा सकती है। अनेकान्त और नयदृष्टि का महत्त्व अनेकान्त के दो सक्षम आयाम हैं-प्रमाण (स्याद्वाद) और नय। जैन तार्किकों ने प्रमाण और नय के द्वारा प्रमेय की व्यवस्था की। एक धर्म की व्याख्या-पद्धति को नय तथा एक धर्म के माध्यम से अखण्ड वस्तु की व्याख्या पद्धति को स्याद्वाद कहा जाता है। नय विकलादेश और प्रमाण सकलादेश है। आगमयुग में पंचविधज्ञान को ही प्रमाण माना जाता था। अनेकान्त और स्याद्वाद के लिए नयों का प्रयोग होता था। दार्शनिक युग में प्रमाण व्यवस्था प्रारम्भ हुई, वह समय की मांग थी। आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार सूत्र का प्रारम्भ पंचविध ज्ञान के सूत्र में किया और प्रमाण की चर्चा ज्ञानगुण प्रमाण के अन्तर्गत की। यहां प्रमाण शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। भाव से वस्तु की प्रतीति की जाती है। इसलिए भाव को प्रमाण कहा गया है और भावप्रमाण के एक भेद के रूप में नय प्रमाण का उल्लेख है। समवाओ45 के अनुसार “व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) में अनुगम, निक्षेप, नय-प्रमाण-उपक्रम आदि विविध प्रश्नोत्तरों का प्रतिपादन हुआ है। इस प्रसंग में और अनुयोगद्वार में उपयुक्त नय-प्रमाण शब्द से संभावना की जा सकती है कि उस समय नय प्रमाण रूप में मान्य था। उत्तराध्ययन में प्रमाण और नय दोनों का उल्लेख है दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्ध। सव्वाहि नयविहीह य वित्याररुइति नायव्वो।।46 जिसे द्रव्यों के सब भाव, सभी प्रमाणों और सभी नयविधियों से उपलब्ध है, वह विस्ताररुचि है। बहुत संभव है कि वाचक उमास्वाति में इसी आधार पर 'प्रमाणनयैरधिगमः'47 इस सूत्र की रचना की है। उन्होंने प्रमाण और नय की स्वतंत्र व्याख्या की। आचार्य समन्तभद्र ने कहा-स्याद्वाद के द्वारा ज्ञात अखण्ड वस्तु के खण्ड-खण्ड का अध्यवसाय नय है।48 दर्शनयुग में एक समस्या ने जन्म लिया कि नय को प्रमाण माना जाये या अप्रमाण। बहुतश्रुत आचार्यों ने इस समस्या को यों सुलझाया कि नय वस्तुखण्ड का यथार्थग्रहण करता है, इसलिए अप्रमाण नहीं है, अखण्ड को ग्रहण नहीं करता इसलिए प्रमाण नहीं है किन्तु प्रमाणांश है। जैसे कि खड़े में भरे हुए जल को समुद्र नहीं कहा जा सकता, असमुद्र भी नहीं कहा जा सकता, समुद्रांश कहा जा सकता है। समीक्षात्मक समन्वय पद्धति के पुरस्कर्ता आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मतितर्क' में नयवाद का विशद निरूपण किया। उन्होंने जैन परम्परा में प्रमाण-व्यवस्था का भी सूत्रपात किया। उनका न्यायावतार ग्रन्थ प्रमाण का आदिग्रन्थ माना जाता है। अकलंक प्रमाण व्यवस्था के विकास पुरुष थे। लघीयस्त्रयी, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंगह आदि ग्रंथों के माध्यम से उन्होंने प्रमाण व्यवस्था की नींव डाली और नयवाद को नये सन्दर्भ दिये। भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नव्यन्याय के युग का प्रारम्भ गंगेश उपाध्याय से होता है। उन्होंने नवीन न्यायशैली का विकास किया। तभी से समस्त दार्शनिकों ने उसके प्रकाश में अपने-अपने दर्शन का परिष्कार 304 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy