SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसका तात्पर्य मात्र इतना ही नहीं है कि वस्तु में सामान्य एवं विशेष नामक विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं अपितु इस कथन का एकपर्याय यह है कि ये विरोधी धर्म एकरसीभूत अर्थात् एकात्मक रूप में रहते हैं। एक नई वस्तु जात्यन्तर के रूप में जैन दर्शन को मान्य है। जैन दर्शन के अनुसार पदार्थ में वस्तुगत भेद नहीं है। उसमें मात्र ज्ञानगत भेद है। अनुगत आकार वाली बुद्धि सामान्य एवं व्यावृत आकार वाली बुद्धि विशेष का बोध कराती है। बुद्धि से ही वस्तु की द्वयात्मकता सिद्ध होती है। सामान्य विशेषात्मक स्वरूप वाला प्रमेय तो एक ही है। वस्तु में कोई विभाग नहीं होता। वह अभिन्न है। ज्ञान से वह द्विधा विभक्त है तथा नय से उसका कथन होता है। __ जैन दर्शन के अनुसार प्रमेय का स्वरूप ही द्वयात्मक है किन्तु उसको विभक्त नहीं किया जा सकता। वस्तु में रहने वाले विरोधी धर्म युगपत् एकता एवं एकात्मक होकर ही वस्तु में अस्तित्व को बनाए रखते हैं। मीमांसा दर्शन में वस्तु को उत्पाद-भंग-स्थिति लक्षण त्रयात्मक स्वीकार किया है। उनके अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है, जिसकी चर्चा आगे हो चुकी है। , आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों में हिगल द्वारा मान्य वस्तु की अवधारणा जैन वस्तुवाद के बहुत समीप प्रतीत होती है। उनके अनुसार अस्तित्व एवं नास्तित्व दोनों साथ मिलकर ही वस्तु के स्वरूप का निर्माण करते हैं। अनेकान्त का तार्किक आधार अविनाभाव हेतु जैन दर्शन के अनुसार वस्तु के स्वरूप में विरोधी धर्मों की सहज अवस्थिति है, यह स्पष्ट हो चुका है। वैचारिक जगत् की यह सामान्य अवधारणा है कि दो विरोधी धर्म एकत्र नहीं रह सकते। अस्तित्व-नास्तित्व परस्पर विरोधी हैं अतः उनका सहावस्थान सम्भव नहीं है। इसके विपरीत जैन दर्शन के अनुसार विरोधी धर्मों के सहावस्थान से ही वस्तु का वस्तुत्व बना हुआ है। द्रव्य का द्रव्यत्व बनाए रखने के लिए विरोधी धर्मों का सहभाव होना अत्यन्त अपेक्षित है। अस्ति-नास्ति का परस्पर अविनाभाव है। वे एक-दूसरे के अभाव में नहीं रह सकते। आचार्य समन्तभद्र ने इनके अविनाभाव का निरूपण करते हुए कहा है कि एक ही वस्तु के विशेषण होने से अस्तित्व, नास्तित्व एवं अस्तित्व-नास्तित्व का अविनाभावी है। जैसा साधर्म्य एवं वैधर्म्य में अविनाभाव होता है, वैसा ही परस्पर इनमें है। विवक्षा हेतु प्रधानता एवं गौणता से एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों की सहावस्थिति युक्तिसंगत है।" वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसके प्रत्येक धर्म का अर्थ भिन्न है। वस्तु के धर्मों में स्थल-प्रधानता एवं गौणता नहीं होती किन्तु वक्ता की विवक्षा से वे धर्म प्रधान या गौण बन जाते हैं। वस्तु का प्रत्येक धर्म अन्य धर्मों को गौण करके सम्पूर्ण सत्ता को प्रतिपादित कर सकता है। जिस धर्म की विवक्षा होती है, वह प्रधान एवं शेष धर्म उसके अंग बन जाते हैं। स्वचतुष्ट्य-परचतुष्ट्य अस्तित्व विधि है और नास्तित्व प्रतिषेध है। अस्तित्व का हेतु वस्तु का स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव है एवं नास्तित्व का हेतु परद्रव्य क्षेत्र आदि है। घट पदार्थ स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा 276 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy