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________________ * वस्तुवादी विचारक 1. चार्वाक-चार्वाक दर्शन पांच या चार भूतों की ही वास्तविक सत्ता स्वीकार करता है। चेतना चार भूतों के विशिष्ट प्रकार के सम्मिश्रण से उत्पन्न होती है। इन्द्रिय ज्ञान ही वास्तविक है।" इन्द्रिय प्रत्यक्ष से प्राप्त प्रमेय को ही यह वास्तविक मानता है। भारतीय दर्शन में यही एक ऐसा दर्शन है, जो सूक्ष्म, इन्द्रिय ज्ञान से परे के तत्त्वों को स्वीकार नहीं करता। 2. वैभाषिक (बौद्ध)-इनके अनुसार बाह्य पदार्थ की वास्तविक सत्ता है। ये बाह्य तथा आभ्यन्तर समस्त धर्मों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। वैभाषिक के अनुसार बाह्य जगत् हमारे प्रत्यक्ष का विषय बन सकता है। 3. सैत्रान्तिक (बौद्ध)-बौद्धों की यह विचारधारा भी बाह्य अर्थ की वास्तविक सत्ता स्वीकार करती है। इनके अनुसार पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता, वह अनुमानगम्य है। यह दर्शन भी वस्तुवादी है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष-ये दो मूल तत्त्व हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मक है। प्रकृति सम्पूर्ण बाह्य जगत् का मूल कारण है। प्रकृति से महत् आदि तेईस तत्त्वों की उत्पत्ति होती है। पुरुष सहित यह दर्शन पच्चीस तत्त्वों को स्वीकार करता है। सांख्य का पुरुष, अमूर्त, चेतन एवं निष्क्रिय है। विश्व के निर्माण व संचालन में इसकी कोई सम्भागिता नहीं है। न्याय-वैशेषिक-न्याय दर्शन प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह तत्त्वों को स्वीकार करता है तथा इन तत्त्वों के ज्ञान से ही मुक्ति होती है। वैशेषिक द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय-ये छह पदार्थ मानता है। बाह्य जगत् की वास्तविक सत्ता है। बाह्य जगत् के उपादान कारण परमाणु हैं। ईश्वर जगत् का निर्माता है। जगत् संरचना का निमित्त कारण है। पूर्व मीमांसा-कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर की ये दो पूर्व मीमांसीय परम्पराएँ हैं। दोनों ही वस्तुवादी . . हैं। प्रभाकर द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और सांख्य नाम वाले आठ पदार्थ स्वीकार करता है। भट्ट परम्परा में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और अभाव-ये पाँच पदार्थ स्वीकृत हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव और अजीव-ये दो मूल तत्त्व हैं। इनके विस्तार से तत्त्वों की संख्या नौ हो जाती है। उपर्युक्त वर्णित सारे दर्शन वस्तुवादी हैं। ये बाह्य पदार्थ की वास्तविक सत्ता स्वीकार करते हैं। - प्रत्ययवादी अन्तरंग जगत् को स्वीकार कर बाह्य का निषेध कर देता है। जैन दर्शन की प्रकृति . अनेकान्तवादी है। अनेकान्त अपनी प्रकृति के अनुसार बाह्य एवं अन्तर जगत् को स्वीकृति प्रदान करता है। जैन दर्शन प्रकृति से अनेकान्तवादी होते हुए भी एकान्ततः वस्तुवादी है। ऐसा पण्डित सुखलाल का मन्तव्य है। किन्तु जैनदर्शन के अनेकान्तवादी प्रकृति होने के कारण प्रत्ययवादी एवं वस्तुवादी इन दोनों धाराओं में समन्वय करने में उसे कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। आगमकाल से लेकर अद्यप्रभृति जैन विचारकों के विचारों से भी हमारे इस मन्तव्य की पुष्टि हो रही है। आचारांग तो ऐतिहासिक एवं कालक्रम से भी सबसे प्राचीन आगम है, उस आगम के अनेक स्थलों पर प्रत्ययवाद की अनुगूंज स्पष्ट सुनाई पड़ रही है। परमात्म स्वरूप के विश्लेषण में आचारांग घोषणा कर रहा है कि परमात्मा शब्द का विषय नहीं बन सकता। सारे स्वर वहाँ से लौट आते हैं। परमात्मा न तर्कगम्य है, न ही बुद्धिग्राह्य है।" उसका बोध करने के लिए कोई उपमा नहीं है। पुरुष जिसको तू मारना चाहता है, वह तू ही है। तुम्हारे से भिन्न दूसरा कोई नहीं है। 272 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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