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________________ होती है, वह द्वितीय क्षण प्रथम क्षण से सर्वथा भिन्न होता है। उसमें हम प्रथम क्षण को कारण और द्वितीय क्षण को कार्य कह देते हैं। ये दोनों क्षण परस्पर में सर्वथा भिन्न हैं। दूसरा क्षण जो कार्य है, नया होता है। इसलिए हम उसे असत्कार्यवाद कहते हैं, किन्तु नया होने पर भी यह कार्य प्रथम क्षण को अपना कारण बनाता है। इसीलिए इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहा जाता है। सांख्य के धर्म और धर्मी एक ही हैं, न्याय गुण और गुणी को भिन्न मानता है, बौद्ध के यहाँ धर्मी या गुणी जैसी कोई चीज है ही नहीं, वह केवल गुण अथवा धर्म को ही मानता है। धर्मों की एक-दूसरे के बाद आने वाली श्रृंखला संतति कहलाती है। इस संतति के कारण हमें क्षणभंगुर पदार्थ भी नित्य जैसे प्रतीत होने लगते हैं। बौद्ध का यह क्षणभंगुरवाद इतना व्यापक है कि यह आत्मा को भी नित्य नहीं मानता। पूर्व का क्षण नष्ट होते-होते स्वभावतः ही दूसरे क्षण को उत्पन्न कर देता है। सांख्य की दृष्टि में चेतन अपरिणामी नित्य है, प्रकृति परिणामी नित्य है। न्याय की दृष्टि में गुण परिणमनशील है, गुणी नित्य है, जबकि बौद्ध दृष्टि में परिवर्तित ही एकमात्र सत्य है। स्थायी या नित्य जैसा कुछ है ही नहीं। बौद्धदर्शन और अनेकान्तवाद बौद्ध एक किसी भी क्षण को पूर्वक्षण का कार्य तथा उत्तरक्षण का कारण मानते ही हैं। यदि वह पूर्वक्षण का कार्य न हो तो सत् होकर भी किसी के उत्पन्न न होने के कारण वह नित्य हो जायेगा। यदि उत्तरक्षण को उत्पन्न न करे तो अर्थक्रियाकारी न होने से अवस्तु हो जायेगा। तात्पर्य यह है कि एक मध्यम क्षण में पूर्व की अपेक्षा कार्यता तथा उत्तर की अपेक्षा कारणता रूप विरुद्ध धर्म मानना अनेकान्त का ही स्वीकार करना है। सिद्धान्त रूप से अनेकान्त का निराकरण करने वाले को भी अपने सिद्धान्त की व्याख्या के लिए अनेकान्त सोपान का हठात् आश्रय लेना पड़ा। इस प्रकार के स्पष्ट उदाहरण अनेक ग्रंथों में कई स्थलों पर उपलब्ध होते हैं। बौद्धदर्शन के प्रणेता भगवान बुद्ध ने स्थान-स्थान पर अनेकान्तदृष्टि का आश्रय लेकर व्याकरण किया है। विनयपिटक, महावग्ग और अंगुतरनिकाय में भगवान बुद्ध के साथ सिंह सेनापति के प्रश्नोत्तरों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। भगवान बुद्ध को अनात्मवादी होने के कारण कुछ लोग अक्रियावादी कहते थे। अतएव सिंह सेनापति ने भगवान बुद्ध से पूछा कि आपको कुछ लोग अक्रियावादी कहते हैं, क्या यह सच है? इसके उत्तर में भगवान बुद्ध ने जो कुछ कहा, उसके द्वारा उनकी अनेकान्तवादिता प्रकट होती है। उन्होंने कहा-यह सच है कि मैं अकुशल कर्मों के प्रति, संस्कार के प्रति अक्रिया का उपदेश देता हूँ अतः अक्रियावादी हूँ तथा कुशल संस्कार की क्रिया का उपदेश देता हूँ अतः क्रियावादी हूँ। भगवान बुद्ध ने संयुक्तनिकाय में कहा-जीव और शरीर को एकान्त भिन्न माना जाए तो ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं है अतएव दोनों अन्तों को छोड़कर मैं मध्यममार्ग का उपदेश देता हूँ। आत्मा का नैश्चयिक अस्तित्व स्वीकार करने पर इन्द्रिय और मन पर आत्मा का जो समारोप किया जाता है, इसे विधि-पक्ष कहते हैं। एकान्तरूप से आत्मा के अस्तित्व की अस्वीकृति निषेध पक्ष है। बौद्ध दर्शन का कहना है-हम न एकान्त विधिपक्ष को और न एकान्त निषेधपक्ष को स्वीकार करते हैं किन्तु हम मध्यम मार्ग को मानते हैं। यह मध्यममार्ग की स्वीकृति अनेकान्त की सूचना है। 263 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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