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________________ सभी नदियां जिस प्रकार महासागर में जाकर मिलती हैं, परन्तु भिन्न-भिन्न स्थित नदियों में महासागर नहीं दिखता है, उसी प्रकार सर्वदर्शन रूपी नदियां अनेकान्तवाद रूपी महासागर में सम्मिलित होती है। परन्तु एकान्तवाद से अलग-अलग रहे हुए उन-उन दर्शनरूपी नदियों में स्याद्वादरूपी महासागर दृष्टिगोचर नहीं होता है। इस सम्बन्ध में सन्त आनन्दघनजी ने नेमिनाथ भगवान के स्तवन में अपने उद्गारों को इस प्रकार प्रकट किया है जिनवरमा सघलां दरिसण छे, दर्शन जिनवर भजना। सागरमा सघली तटिनी सही, तटिनी सागर भजना रे।।' इस प्रकार अनेकान्त दृष्टि एक विशाल दृष्टिकोण है। अनेकान्त दृष्टि एक वस्तु में अनन्त धर्मों का दर्शन करती है। जैसा कि उपाध्याय यशोविजय ने अनेकान्त व्यवस्था प्रकरण में बताया है। . अनन्तधर्म वाली वस्तु प्रमाण का विषय होती है, प्रमाण के द्वारा अनन्त धर्मात्मक जाना जाता है। अनन्तधर्म वाली वस्तु प्रमेय है। अनेक धर्म या अंश ही जिसकी आत्मा हो, वह पदार्थ अनेकान्तात्मक कहा जाता है। चेतन तथा अचेतन सभी वस्तुएँ अनन्त धर्म वाली होती हैं। इसी विषय संबंधी प्रमाण षड्दर्शन समुच्चय,' स्याद्वाद मंजरी," प्रमाणनयतत्त्वालोक," अनेकान्त जयपताका" आदि में भी मिलता है। जिसमें अनन्त तीनों कालों में रहने वाले, अपरिचित, सहभावी तथा क्रमभावी धर्मस्वभाव पाये जाते हैं, वह वस्तु अनन्त धर्मक या अनेकान्तात्मक कहलाती है। अनेकान्त का अर्थ है-अभिन्नता का स्वीकार और भिन्नता में सह-अस्तित्व की सम्भावना का अन्वेषण करना। एक विशिष्ट प्रकार की अपेक्षा से ध्रुवता और यथार्थ है। अतः वे परस्पर सापेक्ष होकर * यथार्थ हैं। परस्पर निरपेक्ष होकर असत्य हो जाते हैं। . वस्तु का द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप ही अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत है। वस्तु व्यवस्था के क्षेत्र में अनेकान्त का उद्भव हुआ और फिर उसका सभी क्षेत्रों में व्यापक प्रयोग होने लगा। आज अनेकान्त दर्शन जैन दर्शन से अभिन्न बन चुका है। भगवान महावीर के दर्शन साहित्य में अनेकान्त का जैसा विशद वर्णन हुआ है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। किन्तु जब अनेकान्त के विकासक्रम की ओर दृष्टि जाती है तो यह स्पष्ट होता है कि अनेकान्त दृष्टि का मूल भगवान महावीर से भी पूर्ववर्ती है। आगम ग्रंथों में उपलब्ध अनेकान्त विचार के विकास में उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने अपनी प्रतिभा का सांगोपांग उपयोग किया है। सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्र, अकलंक, यशोविजय आदि आचार्यों के नाम अनेकान्त विकास में स्मरणीय है। आचार्य सिद्धसेन ने सन्मति तर्क प्रकरण में विभिन्न नयों के आधार पर अन्य दर्शन की मान्यताओं में समन्वय करने का महत्त्वपूर्ण उपक्रम किया है।" सन्मति तर्क में ही सबसे पहले अनेकान्त शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। इसके बाद तो यह शब्द सर्वग्राह्य बन गया। आप्तमीमांसा में नित्यानित्य, सामान्य-विशेष आदि विरोधी वादों में सप्तभंगी की योजना का समन्वय स्थापित किया गया है। इस प्रकार हम क्रमशः अनेकान्त के विकास क्रम को देख सकते हैं। स्याद्वाद शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ स्याद्वाद शब्द स्याद् और वाद-इन दो शब्दों से बना हुआ है। इसमें स्याद शब्द अनेकान्त अर्थ का द्योतक अव्यय है। उनका अर्थ अनेकान्त अर्थात् कथंचित् सापेक्षभाव ऐसा होता है। दूसरा वाद 256 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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