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________________ नयचक्र में स्थापना के दो अन्य प्रकार निर्दिष्ट हैं-साकार और निराकार / प्रतिमा में अर्हत की स्थापना साकार स्थापना है तथा केवलज्ञान आदि क्षायिक गुणों में अर्हत की स्थापना करना निराकार स्थापना है। सायार इयर ठवणा कितिम इयरा हु बिबंजता पठमा। इयरा रवाइय चणिया, ठवणा अरिहो य णायव्वो।। यही स्थापना के दो भेदों का उल्लेख उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्कपरिभाषा में दिखाया है। इसके अतिरिक्त इत्वरकलित एवं यावत्कथित-इन दो भेदों का भी निरूपण किया गया है। 70 अनुयोगद्वार का मन्तव्य है कि नाम यावत्कथित् अर्थात् स्थायी होता है। स्थापना अल्पकालिक एवं स्थायी दोनों प्रकार की होती है। विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार नाम मूल अर्थ से निरपेक्ष और यादुच्छिक अर्थात् इच्छानुसार संकेतित होता है। स्थापना मूल पदार्थ के अभिप्राय से आरोपित होती है। मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार मेरु, द्वीप, समुद्र आदि के नाम यावत् द्रव्यभावी होते हैं। देवदत्त आदि के नामों का परिवर्तन होता है। यही बात उपाध्याय यशोविजय ने भी जैन तर्कपरिभाषा में दिखाई है। नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं। नाम और स्थापना में एक अन्तर यह भी है कि जिसकी स्थापना होती है, उसका नाम अवश्य होता है किन्तु नाम निक्षिप्त की स्थापना होना आवश्यक नहीं है। द्रव्य निक्षेप पदार्थ का भूत एवं भावी पर्यायाश्रित व्यवहार तथा अनुप्रयोग अवस्थागत व्यवहार द्रव्य निक्षेप है-भूतभावि कारणस्य अनुप्रयोगो वा द्रव्यम् अतीत अवस्था, भविष्य अवस्था एवं अनुप्रयोग अवस्था-ये तीनों विवक्षित क्रिया में परिणत नहीं होते हैं, इसलिए इन्हें द्रव्य निक्षेप कहा जाता है। उपाध्याय यशोविजय ने भी जैन तर्क परिभाषा में द्रव्यनिक्षेप का निरूपण करते हुए बताया है। कि-भूतस्य भाविनो वा भावस्य कारणं यन्निक्षिप्यते स द्रव्यनिक्षेप। भूतकाल में भविष्यकाल के पर्याय का जो कारण है,. वह द्रव्यनिक्षेप कहा जाता है। अनुयोगद्वार में द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार बताये गये हैं-आगमतः एवं नोआगमतः। आगमतः द्रव्यनिक्षेप-'जीवादि पदार्थज्ञोऽपि तत्राऽनुपयुक्तः' अर्थात् कोई व्यक्ति जीव विषयक अथवा अन्य किसी वस्तु का ज्ञाता है, किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है, उसे आगमतः द्रव्य निक्षेप कहा जाता है। नो आगमतः द्रव्यनिक्षेप-आगम द्रव्य की आत्मा का उसके शरीर में आरोप करके उस जीव के शरीर को ही ज्ञाता कहना नो आगमतः द्रव्य निक्षेप है। आगमतः द्रव्यनिक्षेप में उपयोग रूप ज्ञान नहीं होता किन्तु लब्धि-रूप में ज्ञान का अस्तित्व रहता है किन्तु न आगमतः में लब्धि एवं उपयोग उभय रूप में ही ज्ञान का अभाव रहता है। नो आगमतः द्रव्यनिक्षेप मुख्य रूप से तीन प्रकार का है-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तदव्यतिरिक्त। 242 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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