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________________ 'प्रमाणाद भिन्नाभिन्नम् -प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न और अभिन्न है, जैसे-प्रकाश अंधकार को हटाकर पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान अज्ञान को हटाकर, दूर कर पदार्थों का बोध कराता है, इसलिए प्रमाण का मुख्य फल ज्ञान है। प्रमाण का परस्पर फल हानि, उपादान, उपेक्षा, बुद्धि है, क्योंकि वस्तु का ज्ञान होने के पश्चात् यदि वस्तु अहितकारी प्रतीत होती है तो ज्ञाता उसे छोड़ देता है और यदि हितकारी प्रतीत होती है तो उसे ग्रहण कर लेता है तथा यदि उस जानी हुई वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं होता, तो उसकी उपेक्षा कर देता है। जैसा कि न्यायावतार में लिखा है प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञानविनिवर्तनम्। केवलस्य सुखीयेचेक्षे शेष म्यादानहान घीः / / इस प्रकार प्रमाण का फल दो प्रकार का है-एक साक्षात् फल अर्थात् न प्रमाण से अभिन्न फल और दूसरा परस्पर फल अर्थात् प्रमाण से भिन्न फल। प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति है और परस्पर फल दान, उपादान, उपेक्षा बुद्धि है। प्रमाण एवं प्रमाण फल में न एकान्त भेद और न एकान्त अभेद अपितु कथंचित् भेदाभेद है। प्रमाता का स्वरूप भारतीय दार्शनिकों के चिन्तन का केन्द्र बिन्दु आत्मा ही रहा है। आत्म-स्वरूप के विषय में : परस्परविरोधी अनेक मत दर्शनशास्त्रों में पाये जाते रहे हैं। वेदान्त, सांख्य आदि दार्शनिक जहाँ आत्मा. को कूटस्थ नित्य स्वीकार कर रहे थे, वहीं बौद्ध दार्शनिक आत्मा को सर्वथा क्षणिक मान रहे थे। योगाचार बौद्ध जहाँ विज्ञान बाह्य किसी चीज का अस्तित्व न होने से और विज्ञान स्वसंविहित होने से आत्मा को स्वावभासी मान रहे थे, वहीं परोक्ष ज्ञानवादी कुमारिल आदि मीमांसक आत्मा का परावभासित्व सिद्ध कर रहे थे। जैन आचार्यों ने आत्म-स्वरूप के विषय में प्रचलित विचारों में समन्वय स्थापित किया एवं आत्मा को नित्यानित्य एवं स्वपरावभासी माना। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाता के स्वरूप को परिभाषित करते हुए लिखा स्वपराभासि परिणाम्यात्मा प्रमाता। स्व और पर को जानने वाला तथा परिणमनशील आत्मा प्रमाता है। इस सूत्र में प्रमाता के दो लक्षण बताये गये हैं * आत्मा का स्व-पर प्रकाशी होना। * आत्मा का परिणमनशील होना। मीमांसक आत्मा को स्वप्रकाशी नहीं मानते। उनके अनुसार 'स्वात्मनि क्रिया विरोध' अर्थात् जिस प्रकार तलवार अपने आपको नहीं काट सकती, नट अपने कंधे पर चढ़कर नहीं नाच सकता, उसी प्रकार आत्मा अपने आपको नहीं जान सकती। दूसरी बात यदि आत्मा को स्वावभासी माने तो आत्मा ज्ञेय बन जायेगी, क्योंकि जिसको जाना जाता है, वह ज्ञेय कहलाता है। आत्मा को स्वावभासी मानने से वह ज्ञेय बन जायेगी। फिर उसे ज्ञाता नहीं कहा जा सकता। अतः मीमांसकों को आत्मा का स्वावभासित्व इष्ट नहीं था। दूसरी ओर योगाचार बौद्ध विज्ञान बाह्य किसी चीज का अस्तित्व न स्वीकार करने के कारण आत्मा को स्वावभासी मान रहे 236 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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