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________________ इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान का कार्य जानने का है, किन्तु वह ज्ञेय से भिन्न है। ज्ञाता तथा ज्ञान अभिन्न है किन्तु ज्ञेय पृथक् है। यह ज्ञान वीतराग विज्ञान भी कहलाता है। इस प्रकार ज्ञान होने से व्यक्ति में कर्तृत्व की बुद्धि समाप्त हो जाती है। वह पदार्थों में अनासक्त रहकर मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बना रहता है। ज्ञान की विशिष्टता अज्ञान का पूर्ण अभाव ही वस्तुतः ज्ञान है। जैसे कि अंधकार का सम्पूर्ण अभाव ही परमार्थतः प्रकाश है। क्षण-क्षण क्षीयमान एवं प्रतिपल परिवर्तित होने वाले इस संसार में प्रत्येक प्राणी दुःख और अशांति की ज्वालाओं से छटपटा रहा है। ऐसी ज्वालाओं से बचने के लिए उसकी किसी-न-किसी रूप में रात-दिन भाग-दौड़ चल रही है। परन्तु अजम्न सुख की अनंतधारा से वह प्रतिपल दूर होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यदि अन्वेषण करते हैं तो ख्याल आता है कि मनुष्य का अज्ञान ही उसे अनंत सुख से पराङ्मुख बना रहा है तथा विमुक्ति के सोचने पर कदम बढ़ाने से रोके हुए है। उसका अपना अज्ञान ही उसे संसार चक्र में भटकाने का काम कर रहा है। मनुष्य का बिगाड़ और बनाव उसके स्वयं के हाथ में है। वह चाहे तो अपने जीवन का उत्थान कर सकता है और चाहे तो पतन भी कर सकता है। मनुष्य के अन्तःकरण में जब अज्ञान की अंधकारमयी भीषण आंधी चलती है, तब वह भ्रान्त होकर अपने सत्यापथ एवं आत्मपथ से भटक जाता है लेकिन ज्ञानलोक की अनंत किरणें उसकी आत्मा में प्रस्फुटित होती हैं तो उसे निजस्वरूप का भान-ज्ञान और परिज्ञान हो जाता है। तब बाह्य परीबलों से ऊपर उठकर आत्म-रमणता के पावन पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता जाता है। आत्मिक विकास उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है लेकिन सुखों, क्षणिक सुखों को तिलांजलि देकर अनंत अक्षय सुख की प्राप्ति हेतु अनवरत प्रयत्नशील रहता है। सच्चे सुख की व्याख्या में जैन दर्शनकारों ने स्पष्ट उद्घोषणा की है कि अज्ञान निवृत्ति एवं आत्मा में विद्यमान निजानंद एवं परमानंद की अनुभूति ही सच्चे सुख की श्रेणी में है। अपनी आत्मा में ही ज्ञान की अजम्मधारा प्रवाहित है। आवश्यकता है उसके ऊपर स्थित अज्ञान एवं मोह के पर्दे को हटाने की फिर वह अनंत सुख की धारा, अनंत शक्ति का लहराता हुआ सागर उमड़ने लगेगा। ज्ञान के द्वारा ही आत्मा कर्म, बंध, मोक्ष, हेय, उपादेय, ज्ञेय आदि के स्वरूप को जानता है तथा उसी के अनुरूप अपनी प्रवृत्ति करता है। ज्ञान के द्वारा आत्मा में विवेक का दीप प्रज्वलित होता है, जिससे उसकी प्रवृत्ति भाव-सभारंभ से रहित होती है। पाप भय सदैव उसे सताता है। ज्ञान के द्वारा ही प्रत्येक अनुष्ठान सदनुष्ठान बनता है। अज्ञानी को विधि-विधान का भान ही नहीं होता है और जब सदनुष्ठान नहीं होता, वहाँ तक तीर्थ की उन्नति नहीं हो सकती है तथा श्रेष्ठ फल की प्राप्ति नहीं होती। अतः कहा है "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः" ज्ञान के साथ क्रिया होगी, तभी मोक्ष की प्राप्ति संभव है। ज्ञान रहित क्रिया तो छार पर लींपण के समान है। ज्ञान के द्वारा ही जीवात्मा अनेक तत्त्वों पर चिंतन कर सकता है। ध्यान की श्रेणी में उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर घातिकर्मों का क्षय करके दिव्य केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। 217 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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