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________________ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय-ये छह तत्त्व वैशेषिक मत में हैं। कोई आचार्य अभाव को भी सातवां पदार्थ मानते हैं। . आत्मा के नौ विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद होना ही मोक्ष है। मीमांसक तो अद्वैतवादी होने से ब्रह्म को ही स्वीकार करते हैं। ब्रह्म के सिवाय कुछ भी नहीं है तथा ब्रह्म में लय हो जाना ही मोक्ष है। उपरोक्त अन्य दर्शनकारों के द्वारा मान्य तत्त्व जैन दर्शन के नव अथवा दो तत्त्वों में समावेश हो जाता है, क्योंकि चराचर जगत् में जीव अथवा अजीव के सिवाय एक भी पदार्थ ऐसा नहीं, जिसका इनमें अन्तर्भाव न हो। सात अथवा नौ भेदों की कल्पना विशेष रूप से बोध देने हेतु की गई है, जिससे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त हो सके। उपाध्याय यशोविजय ने नौ तत्त्वों की बहुत ही सुन्दर एवं मार्मिक विवेचना की है। अंत में कह सकते हैं कि लोक की व्यवस्था के लिए छह द्रव्य आवश्यक हैं। उसी प्रकार आत्मा के आरोह और अवरोह को जानने के लिए नौ तत्त्व उपयोगी हैं। इनके बिना आत्मा के विकास या हास की प्रक्रिया बुद्धिगम्य नहीं हो सकती। स्याद्वाद का महत्त्व किसी भी बात को सर्वथा एकान्त में नहीं कहने का, और न ही स्वीकार करने का संलक्ष्य जैन दर्शन में मिलता है। इसी से जैन दर्शन को अनेकान्तवाद से आख्यायित किया गया है एवं स्याद्वाद स्वरूप से चरितार्थ बनाया गया है। विचार और आचार-इन दोनों से दर्शन धर्म की सिद्धि की गई है। ऐसे दर्शन धर्म में आचारों को नियमबद्ध नीति से पालने का आदेश मिलता है। विचारों की स्वाधीनता सर्वत्र सामान्य कही गई . . है पर वह भी दार्शनिक तथ्यों से नियंत्रित पाई गई है। स्याद्वाद दर्शन एक नियमबद्ध दार्शनिकता को दर्शित करता है, अनेकान्तता का आकार आयोजित करता है। एकान्त से किसी भी विचार को दुराग्रहपूर्ण व्यक्त करने का निषेध करता है पर ससम्मान समादर भाव से संप्रेक्षण करना सत्यता का सहकारी हो जाता है। स्याद्वाद सिद्धि का साक्षात्कार है और समन्वयता का संतुलित शुद्ध प्रकार है जो निर्विरोध भाव से विभूषित होता, विश्वमान्य दर्शन की श्रेणी में अपना सम्मानीय स्थान बनाता गया। इस अनेकान्तवाद के सूक्ष्मता के उद्गाता तीर्थंकर परमात्मा हुए, गणधर भगवन्त हुए एवं उत्तरोत्तर इस परम्परा का परिपालन चलता रहा। इस सिद्धान्त स्वरूप को नयवाद से न्यायसंगत बनाने में मल्लवादियों का महोत्कर्ष रहा। सिद्धसेन दिवाकर से पाण्डित्य उजागर हुआ, वाचकवर उमास्वाति ने इसी विषय को सूत्रबद्ध बनाया। समदर्शी उपाध्याय यशोविजय अनेकान्तवाद के स्वतन्त्र सुधी बनकर अनेकान्त व्यवस्था जैसे ग्रन्थ के निर्वाण में अविनाभाव से अद्वितीय रहे। आज अभी अनेकान्तदर्शन की जो महिमा और जो मौलिकता बतलाने के माधुर्य को महत्त्व दे रही है, इसका एक ही कारण है कि जैनाचार्यों ने समग्रता से अन्यान्य दार्शनिक संविधानों का सम्पूर्णता से स्वाध्याय कर समयोचित निष्कर्ष को निष्पादित करते हुए अनेकान्त की जयपताका फहराई। 176 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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