SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदि सभी पदार्थों का त्रिधर्मात्मक (त्रिपदी) से चिंतन करना चाहिए। परमार्थ से यह त्रिपदी ही सत् का लक्षण है, जिसे वाचक उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार उल्लेख किया है उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।' उत्पाद, व्यय और ध्रुव-इन तीन धर्मों का त्रिवेणी संगम जहां साक्षात् मिलता हो, वही सत् जानना चाहिए। महापुरुषों ने उसे ही सत् का लक्षण कहा है। जैसे कि एक ही समय में आत्मा में उत्पाद, व्यय और ध्रुव-तीनों धर्म घटित हो सकते हैं। यह अनुभवजन्य है कि जिस आत्मा का मनुष्य रूप से व्यय होता है, उसी का देवत्व आदि पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद होता है। आत्मस्वरूप नित्यता सदैव संस्थित रहती है। इसी को महोपाध्याय यशोविजय ने द्रव्य, गुण, पर्याय के रास में प्रस्तुत किया है। ___ घट मुकुट सुवर्ण अर्थिआ, व्यय उत्पति थिति पेखंत रे। निजरूपई होवई हेम थी दुःख हर्ष उपेक्षावंत रे।। दुग्ध दधि भुजइ नवि दूध दधिव्रत खाई रे। नवि दोइं अगोरसवत जिमइं तिणि तियलक्षण जग थाई।। .. ऐसा ही दृष्टांत ग्रंथान्तर में मिलता है-षड्दर्शन समुच्चय टीका, न्यायविनिश्चय, आप्तमीमांसा," मीमांसाश्लोक वार्तिक' तथा ध्यानशतकवृत्ति।" 'व्यवहार में भी इसका अनुभव होता है। जैसे कि कांच का गुलदस्ता हाथ में से गिर गया, तो गुलदस्ता रूप में नाश, टुकड़े रूप में उत्पाद और पुद्गल रूप में ध्रुव। ___ मक्खन में से घी बना, तब मक्खन का व्यय, घी का उत्पाद और गौरस रूप में उसका ध्रौव्य। गृहस्थ में से श्रमण बना, तब गृहस्थ पर्याय का नाश, श्रमण पर्याय का उत्पाद और आत्मतत्व द्रव्य का ध्रुवत्व। रामदत नाम का एक व्यक्ति बालक से जवान बना तब बचपन का व्यय, युवावस्था का उत्पाद और रामदत्त रूप में ध्रौव्य। इसी प्रकार दूध का व्रतवाला अर्थात् दूध ही पीता है, वह दही का भोजन नहीं करता है और दही का भोजन करना है, ऐसा व्रत वाला दूध नहीं पीता है। लेकिन अगोरस का ही भोजन करना है, ऐसा व्रतवाला दूध-दही कुछ भी नहीं लेता है। इस दृष्टान्त से भी ज्ञात होता है कि पदार्थ तीन धर्मों से युक्त है। इसी बात को शास्त्रवार्ता समुच्चय में दृष्टान्त देकर समझाते हैं। घट मौलि सुवर्णार्थि नाशोत्पाद स्थितिष्वयम्। शोक प्रमोद माध्यस्थं जनौ याति सहेतुकम।। पयोव्रतो न दध्यति न पयो ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात् तत्वं त्रयात्मकम्।।" सुवर्ण के कलश से एक बाल क्रीड़ा करता हुआ प्रसन्नता के झूलों में झूल रहा था। दूसरा बालक उसे इस प्रकार क्रीड़ा करके देखकर स्वयं के लिए सोने का मुकुट बनाने हेतु अपने पिता के सामने मनोकामना व्यक्त की लेकिन परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि मुकुट बनाने के लिए घर में दूसरा सुवर्ण नहीं था। अतः सुनार के पास जाकर सुवर्ण के घट तोड़कर मुकुट बनाने को कहा, सुनार घट को छिन्न-भिन्न करके सुन्दर मुकुट तैयार करता है। उसमें एक ही समय में घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy