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________________ COOD 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 बंदूक, बरछी आदि का व्यापार कम से कम गृहस्थ-धर्म पालन करने वाले को कभी भूलकर भी नहीं करना चाहिए। मूल : एवं खुजंतपिल्लणकम्म, निल्लंछणे च दवदाणे। सरदहतलायसोसं, असइपोसं च वज्जिज्जा||३|| छायाः एवं खलु यन्त्रपीडनकर्म, निर्लाच्छनं दवदानम्। सरद्रहतड़ागशोषं, असती पोषम् च वर्जयेत्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इस प्रकार (ख) निश्चय करके (जंतपिल्लण) यंत्रों के द्वारा प्राणियों को बाधा पहुँचे ऐसा (च) और (निल्लंछण) अण्डकोष फुड़वाने का (दवदाणं) दावानल लगाने का (सरहदतलायसोस) सर, द्रह, तालाब की पाल फोड़ने का (च) और (असईपोस) दासी वेश्यादि के पोषण का (कम्म) कर्म (वज्जिज्जा) छोड़ देना चाहिए। __भावार्थ : हे गौतम! ऐसे कई प्रकार के यंत्र हैं, कि जिनके द्वारा पंचेन्द्रियों के अवययों का छेदन भेदन होता हो, अथवा यंत्रादिकों के बनाने से प्राणियों की पीड़ा हो, आदि ऐसे यंत्र संबंधी-बंधों का गृहस्थ-धर्म पालन कर नपुंसक अर्थात् खस्सी करने का, दावानल सुलगाने का, बिना खोदी हुई जगह पर पानी भरा हुआ हो, ऐसा कर एवं जहां खूब पानी भरा हुआ हो ऐसा तालाब, कुंआ, बावड़ी आदि जिसके द्वारा बहुत से जीव पानी पीकर अपनी तृषा बुझाते हैं। उनकी पाल फोड़ कर पानी निकाल देने का, दासी वेश्या आदि को व्यभिचार के निमित्त रखना या चूहों को मारने के लिये बिल्ली आदि का पोषण करना, आदि आदि कर्म गृहस्थी को जीवन भर के लिए छोड़ देना ही सच्चा गृहस्थ-धर्म है। गृहस्थ का आठवां धर्म अणत्थदंडवेरमणं हिसंक विचारों, अनर्थकारी बातों आदि का परित्याग करना है। गृहस्थ का नौवां धर्म यह है कि सामाइयं दिन भर में कम से कम एक अन्तर मुहूर्त (45 मिनट) तो ऐसा बितादें कि संसार से बिलकुल ही विरक्त होकर उस समय वह आत्मिक गुणों का चिन्तवन कर सकें। गृहस्थ का दसवां धर्म है देसावगासियं-जिन पदार्थों की छूट रखी है, उनका फिर भी त्याग करना और निर्धारित समय के लिए सांसारिक झंझटों से पृथक रहना। ग्यारहवां धर्म यह है कि पोसहोववासे-कम से कम महीने भर में प्रत्येक अष्टमी चतुर्दशी पूर्णिमा और अमावस्या को पौषध करे* अर्थात् इन दिनों में वे सम्पूर्ण सांसारिक झंझटों को छोड़कर अहोरात्रि आध्यात्मिक 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000px 64 निर्ग्रन्थ प्रवचन/81 Woooooooooooooooool Jain Education inemational For Personal & Private Use Only oooooooooooooooot c/www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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