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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! कैवल्य ज्ञान का एक ही भेद है और वह सब द्रव्य मात्र के उत्पत्ति, विनाश ध्रुवता और उनके गुणों एवं पारस्परिक पदार्थों की भिन्नता का विज्ञान कराने में कारणभूत है। इसी प्रकार ज्ञेय पदार्थ अनंत होने से इसे अनंत भी कहते हैं और यह शाश्वत भी है। केवल्य ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् पुनः नष्ट नहीं होता है। इसलिए यह अप्रतिपाती भी है। मूल: एयं पंचविहंणाणं, दवाण य गुणाण या पज्जवाणंच सब्वेसिं, नाणं नाणीहि देसियं|३|| छायाः एतत् पञ्चविधं ज्ञानम्, द्रव्याणाम् च गुणाणांच पर्यवाणां च सर्वेषां, ज्ञानं ज्ञानिभिर्दर्शितम्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एय) यह (पंचविहं) पाँच प्रकार का (नाणं) ज्ञान (सव्वेसि) सर्व (दव्वाणं) द्रव्य (य) और (गुणाण) गुण (य) और (पज्जवाणं) पर्यायों को (नाणं) जानने वाला है, ऐसा (नाणीहि) तीर्थंकरों द्वारा (दसिय) कहा गया है। भावार्थ : हे गौतम! संसार में ऐसा कोई भी द्रव्य, गुण या पर्याय नहीं है जो इन पांच ज्ञानों से न जानी जा सके। प्रत्येक ज्ञेय पदार्थ यथायोग्य रूप से किसी न किसी ज्ञान का विषय होता ही है। ऐसा सभी तीर्थंकरों ने कहा है। मूल : पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही किंवा, नाहिइछेयपावर्ग||४|| छायाः प्रथमं ज्ञानं ततो दया, एवं तिष्ठति सर्व संयतः। __ अज्ञानी किं करिष्यति, किं वा ज्ञास्यति श्रेयः पापकम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पढम) पहले (णाणं) ज्ञान (तओ) फिर (दया) जीव रक्षा (एवं) इस प्रकार (सव्वसंजए) सब साधु ( चिट्ठइ) रहते हैं। (अन्नाणी) अज्ञानी (किं) क्या (काही) क्या करेगा? (वा) और (किं) कैसे वह अज्ञानी (छेय पावंग) श्रेयस्कर और पापमय मार्ग को (नाहिइ) जानेगा? ____भावार्थ : हे गौतम! पहले जीव रक्षा संबंधी ज्ञान की आवश्यकता है। क्योंकि, बिना ज्ञान के जीव रक्षा रूप क्रिया का पालन किसी भी प्रकार हो नहीं सकता, पहले ज्ञान होता है, फिर उस विषय में प्रवृत्ति होती है। संयमशील जीवन बिताने वाला मानव वर्ग भी पहले ज्ञान ही po00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 DFN0000000000000OOOOGA EN निर्ग्रन्थ प्रवचन/66 00000000000 cwww.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only por personal Priate ye
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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