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________________ goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooo 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्न रइअरइसमाउत्। परपरिवायं माया, मोसं मिच्छत्तसल्लं च||१६|| छाया: प्राणातिपातमलीकं चौर्यं मैथुनं द्रव्यमूर्छाम्। क्रोधं मानं मायां लोभं प्रेमं तथा द्वेषम्।।१५।। कलहमभ्याख्यानं पैशून्यं रत्यरती सम्यगुक्तम्। परपरिवादं मायामृषा मिथ्यात्वशल्यं च।।१६।। दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! (पाणाइवायं) प्राणातिपात-हिंसा (अलिय) झूठ (चोरिक्क) चोरी (मेहुणं) मैथुन (दवियमुच्छं) द्रव्य में मूर्छा (कोह) क्रोध (माणं) मान (माय) माया (लोभ) लोभ (पज्ज) राग (तहा) तथा (दोस) द्वेष (कलह) लड़ाई (अमक्खाणं) अभ्याख्यान (पेसुन्न) चुगली (परपरिवाय) परपरिवाद (रइअरइ) अधर्म में आनंद और धर्म में अप्रसन्नता (मायमोस) कपट युक्त झूठ (च) और (मिच्छत्तसल्ल) मिथ्यात्त्व रूप शल्य, इस प्रकार अठारह पापों का स्वरूप ज्ञानियों ने (समाउत्त) अच्छी तरह कहा है। भावार्थ : हे गौतम! प्राणियों के दश प्राणों में से किसी भी प्राण को हनन करना, मन, वचन, काया से दूसरों के मन तक को भी दुखाना, हिंसा है। इस हिंसा से यह आत्मा मलीन होता है। इसी तरह झूठ बोलने से, चोरी करने से, मैथुन सेवन से, वस्तु पर मूर्छा रखने से, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष करने से, और परस्पर लड़ाई झगड़ा करने से, किसी निर्दोषी पर कलंक का आरोप करने से, किसी की चुगली खाने से, दूसरों के अवगुणावाद बोलने से और इसी तरह अधर्म में प्रसन्नता रखने से और धर्म में अप्रसन्नता दिखाने से, दूसरों को ठगने के लिए कपट पूर्वक झूठ का व्यवहार करने से और मिथ्यात्व रूप शल्य के द्वारा पीड़ित रहने से, अर्थात् कुदेव कुधर्म के मानने से आदि इन्हीं अठारह प्रकार के पापों से जकड़ी हुई यह आत्मा नाना प्रकार के दुःख उठाती हुई, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करती रहती है। मूल : अज्झवसानिमित्ते, आहारे वेयणापराघाते। फासे आणापाणू, सत्तविहं झिझए आउं||१७|| छाया: अध्यवसाननिमित्ते आहार:वेदना पराघातः। स्पर्श आनप्राणः सप्तविधं क्षियते आयु।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आउं) आयु (सत्तविह) सात प्रकार से (झिझए) टूटता है। (अज्झवसाणनिमित्ते) भयात्मक अध्यवसाय और दण्ड so000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot निर्ग्रन्थ प्रवचन/60 0000000000000000 D0000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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