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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000c 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जरामरणवेगेणं) जरा मृत्यु रूप जल के वेग से (वुज्झमाणाण) डूबते हुए (पाणिणं) प्राणियों को (धम्मो) धर्म (पइट्ठा) निश्चल आधारभूत (गई) स्थान (य) और (उत्तम) प्रधान (शरणं) शरण रूप (दीवो) द्वीप है। भावार्थ : हे गौतम! जन्म जरा, मृत्यु रूप जल के प्रवाह में डूबते हए प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला धर्म ही निश्चल आधारभूत स्थान और उत्तम शरण रूप एक टापू के समान है। मूल : एस धम्मे धुवे णितिए, सासए जिणदेसिए। सिद्धा सिझंति चाणेणं, सिज्झिसंति वहावरे||१४|| छायाः ऐषो धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो निजदेशितः। सिद्धाः सिद्धयन्ति चानेन, सेत्स्यन्ति तथाऽपरे।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जिणदेसिए) तीर्थंकरों के द्वारा कहा हुआ (एस) यह (धम्मे) धर्म (धुवे) ध्रुव है (णितिए) नित्य है (सासए) शाश्वत है (अणेणं) इस धर्म के द्वारा अनंत जीव भूतकाल में सिद्ध हुए हैं (च) और वर्तमान काल में (सिझंति) सिद्ध हो रहे हैं (तहा) उसी तरह (अवरे) भविष्यत काल में भी (सिज्झिसंति) सिद्ध होंगे। __भावार्थ : हे गौतम! पूर्ण ज्ञानियों के द्वारा हुआ यह धर्म ध्रुव के समान है। तीन काल में नित्य है, शाश्वत् है। इसी धर्म को अंगीकार कर के अनंत जीव भूतकाल में कर्मों के बंधन से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो गये हैं। वर्तमान काल में हो रहे हैं और भविष्यत काल में भी इसी धर्म का सेवन करते हुए अनंत जीवं मुक्ति को प्राप्त करेंगे। goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/52 ooooooo0000000000 Jain Education International Doooooo000000000c www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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