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________________ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000ood Moooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मूल : अच्छीनिमिलियमेवं, नत्यि सुहं दुक्खमेव अणुबद्ध। नरए नेरइयाणं, अहोनिसं पच्चमाणाणं|||| छायाः अक्षिनिमीलितमात्रं, नास्ति सुखं दुःखमेवानुबद्धम् / नरके नैरयिकाणाम्, अहर्निशं पच्यमानानाम्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहोनिसं) रात दिन (पच्चमाणाणं) पचते हुए (नरइयाणं) नारकीय जीवों को (नरए) नरक में (अच्छी) आँख (निमिलियमेत्तं) टिम टिमावे इतने समय के लिये भी (सुह) सुख (नत्थि) नहीं है। क्योंकि (दुक्खमेव) दुख ही (अणुबद्ध) अनुबद्ध हो रहा है। भावार्थ : हे गौतम! सदैव कष्ट उठाते हुए नारकीय जीवों को एक पल भी सुख नहीं मिलता है। एक दुख के बाद दूसरा दुख उनके लिए तैयार रहता है। मूल : अइसीयं अइउण्हं, अइतण्हा अइक्खुहा। अईभयं च नरए नेरयाणं, दुक्खसयाई अविस्साम||१०|| छायाः अतिशीतम् अत्युष्णं, अतितृषाऽति क्षुधा। अतिभयं च नरके नैरयिकाणाम्, दुःखशतान्यविश्रामम्।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नरए) नरक में (नेरयाणं) नारकीय जीवों को (अइसीय) अति शीत (अइउण्ह) अति उष्ण (अइतण्हा) अति तृष्ण (अइक्खुहा) अति भूख (च) और (अईभयं) अति भय (दुक्खसयाई) सैंकड़ों दुख (अविस्साम) विश्राम रहित भोगना पड़ता है। भावार्थ : हे गौतम! नरक में रहे हुए जीवों को अत्यंत ठण्ड गर्मी भूख प्यास और भय आदि सैंकड़ों दुःख एक के बाद एक लगातार रूप से कृत-कर्मों के फलरूप में भोगने पड़ते हैं। मूल : जंजारिसं पुल्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए। एगंतदुक्खं भवमज्जणित्ता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं||११|| छायाः यात्यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म, तदेवागच्छति सम्पराये। एकान्तदुःखं भव मर्जयित्वा, वेदयन्ति दुःखिन स्तमनन्तदुःखम्।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जं) जो (कम्म) कर्म (जारिस) जैसे (पुव्वं) पूर्व भव में जीव ने (अकासि) किये हैं (तमेव) वैसे ही, उसके फल (संपराए) संसार में (आगचछति) प्राप्त होते हैं। (एगंतदुक्खं) केवल दुःख 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl निर्ग्रन्थ प्रवचन /1823 Jain Bela todococUo0d0000000067 Personal & Private Use only 50000000000000000morey.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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