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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og soooo0000000000000000000000000000000000000000000 Boo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (य) और (पंचेन्द्रियाणि) विषय की ओर घूमती हुई पाँचों ही इन्द्रियों को (च) और (पावकं) पाप के हेतु (परिणाम) आने वाले अभिप्राय को (च) और (भासादोस) सावध भाषा बोलने को (साहरे) रोके रखते हैं। _भावार्थ : हे आर्य! जो ज्ञानीजन हैं, वे कछुए की तरह अपने हाथ पावों को संकुचित रखते हैं। अर्थात् उनके द्वारा पाप कर्म नहीं करते हैं और पापों की ओर घूमते हुए इस मन के वेग को रोकते हैं। विषयों की ओर इन्द्रियों को झांकने तक नहीं देते हैं और बुरे भावों को हृदय में नहीं आने देते और जिस भाषा से दूसरों का बुरा होता हो, ऐसी भाषा भी कभी नहीं बोलते हैं। मूल : एयं खुणाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचणं| अहिंसा समयं चेव, एतावंतं वियाणिया||१५|| छायाः एतत् खलु ज्ञानिनः सारं, यन्न हिंस्यति कञ्चन्। अहिंसा समयं चैव, एतावती विज्ञानिता।।१५।। अन्वयार्थ : हे आर्य! (खु) निश्चय करके (णाणिणो) ज्ञानियों का (एय) यह (सारं) तत्व है कि (ज) जो (कंचणं) किसी भी जीव की (न) नहीं (हिंसति) हिंसा करते (अहिंसा) अहिंसा (चेव) ही (समय) शास्त्रीय तत्व है (एतावंत) बस, इतना ही (वियाणिया) विज्ञान है। यह यथेष्ट ज्ञानीजन है। भावार्थ : हे आर्य! ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात उन ज्ञानियों का सारभूत तत्व यही है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करते। वे अहिंसा ही को शास्त्रों का प्रधान विषय समझते हैं। वास्तव में इतना जिसे सम्यक् ज्ञान है वही यथेष्ट ज्ञानीजन है। बहुत अधिक ज्ञान सम्पादन करके भी यदि हिंसा को न छोड़े, तो उनका विशेष ज्ञान भी अज्ञान रूप है। मूल: संबुज्झामाणे उ णरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवट्टएजा। हिंसप्पसूयाइंदुहाइंमत्ता, वेराणुबंधीणिमहब्भयाणि||१६|| छायाः संबुद्ध्यमानस्तु नरे मतिमान्, पापादात्मानं निवर्तयेत्। हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, बैरानुबन्धीनि महाभयानिः।।१६।। अन्वयार्थ : हे आर्य! (संबुज्झमाणे) तत्वों को जानते वाला (मतीम) बुद्धिमान (णरे) मनुष्य (हिंसप्पसूयाई) हिंसा से उत्पन्न होने वाले (दुहाई) दुःखों को (वराणुबंधीणि) कर्मबंध हेतु (महब्भयाणि) महाभयकारी (मत्ता) 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooo Jain E निर्गन्थ प्रवचन/1563 = 0 booooooooo0000000dnararylorg
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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