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________________ soooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooo00000000 Vdoo0000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000 जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप में अपने केवल ज्ञान के बल से स्वर्ग नरकादि देखे हैं, उनके वाक्यों को प्रमाण भूत वह माने और उनके कहे हुए वाक्यों को, ग्रहण कर उनके अनुसार अपनी प्रकृति बनावे। हे ज्ञान शून्य मनुष्यों! तुम कहते हो कि वर्तमान काल में जो होता है, वही है और सब ही नास्तिरूप हैं। ऐसा कहने से तुम्हारे पिता और पितामह की भी नास्तिता सिद्धा होगी और जब इनकी ही नास्ति होगी, तो तुम्हारी उत्पत्ति कैसे हुई?पिता के बिना पुत्र की कभी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। अतः भूतकाल में भी पिता था, ऐसा अवश्य मानना होगा। इसी तरह भूत और भविष्य काल में नरक स्वर्ग आदि के होने वाले सुख दुःख भी अवश्य हैं। कर्मों के शुभ-शुभ फल स्वरूप नरक स्वर्गादि नहीं है, ऐसा जो कहता है, उसका सम्यक् ज्ञान मोहवश किये हुए कर्मों से ढंका हुआ है। मूल : गारं पि अ आवसे नरे, अणुपुत्वं पाणेहिं संजए। समता सव्वत्य सुब्बते, देवाणं गच्छे सलोग||५|| छायाः अगारमपि चावसन्नर, आनुपूर्व्या प्राणेषु संयतः। समता सर्वत्र सुव्रतः, देवानां गच्छेत्सलोकताम्।।६।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (गारं पि उ) घर में (आवसे) रहता हुआ (नरे) मनुष्य भी (अणुपुव्वं) जो धर्म श्रवणादि अनुक्रम से (पाणेहिं) प्राणों की (संजए) यतना करता रहता है। (सव्वत्थ) सब जगह (समता) समभाव है जिसके ऐसा (सुव्वते) सुव्रतवान गृहस्थ भी (देवाणं) देवताओं के (सलोगय) लोक को (गच्छे) जाता है। भावार्थ : हे पुत्रो! जो गृहस्थावास में रहकर भी धर्म श्रवण करके अपनी शक्ति के अनुसार अपनों तथा परायों पर सब जगह समभाव रखता हुआ प्राणियों की हिंसा नहीं करता है वह गृहस्थ भी इस प्रकार का व्रत अच्छी तरह पालता हुआ स्वर्ग को जाता है। भविष्य में उसके लिए मोक्ष भी निकट ही है। ॥श्रीसुधर्मोवाच| मूल : अभविंसु पुरा वि भिक्खुवो, आएसा वि भवंति सुन्वता। एयाइं गुणाई आहुते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो||१०|| छायाः अभवत् पुराऽपि भिक्षवः, आगमिष्या अपि सुव्रताः। एतान् गुणाना हुस्ते, काश्यपस्यानु धर्मचारिणः।।१०।। ago0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000 000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1533 00000000000000ook boo00000000000 Helgary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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