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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooooo boota 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 रहित (विणीयविणए) अपने बड़ों का विनय करने में विनीत वृत्ति वाला (दंते) इन्द्रियों को दमन करने वाला (जोगवं) शुभ योगों को लाने वाला (उवहाणव) शास्त्रीय विधि से तप करने वाला (पियधम्मे) जिसकी धर्म में प्रीति हो, (दढधम्मे) दृढ़ है मन धर्म में जिसका (अवज्जभीरू) पाप से डरने वाला (हिएसए) हित को ढूंढ़ने वाला, मनुष्य (तेऊलेस) तेजो लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है। भावार्थ : हे गौतम! जिसकी प्रवृत्ति नम्र है, जो स्थिर बुद्धि वाला है, जो निष्कपट है, हंसी-मज़ाक करने का जिसका स्वभाव नहीं है, बड़ों का विनय कर जिसने विनीत की उपाधि प्राप्त कर ली है, जो जितेन्द्रिय है, मानसिक, वाचिक और कायिक इन तीनों योगों के द्वारा जो कभी किसी का अहित न चाहता हो, शास्त्री विधि विधान युत तपस्या करने में दत्त चित्त रहता हो, धर्म में सदैव प्रेम भाव रखता हो, चाहे उस पर प्राणान्त कष्ट ही क्यों न आ जावे, पर धर्म में जो दृढ़ रहता है, किसी जीव को कष्ट न पहुंचे ऐसी भाषा जो बोलता हो और हितकारी मोक्ष धाम को जाने के लिए शुद्ध क्रिया करने की गवेषणा जो करता रहता हो, वह तेजोलेशी कहलाता है। जो जीव इस प्रकार की भावना रखता हो वह मर कर ऊर्ध्वगति अर्थात् परलोक में उत्तम स्थान को प्राप्त होता है। हे गौतम! पद्मलेश्या का वर्णन यों है:मूल: पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए। पसंतचिचे दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं||१०|| वहा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउचो, पम्हलेसं तु परिणमे||११|| छायाः प्रतनुक्रोधमानश्च, मायालोभौ च प्रतनुकौ। प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, योगवानुपधानवान्।।१०।। तथा प्रतनुवादी च, उपशान्तो जितेन्द्रियः। एतद्योगसमायुक्तः, पद्मलेश्या तु परिणमेत्।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पयणुक्कोहमाणे) पतले हैं क्रोध और मान जिसके (अ) और (मायालोभे) माया तथा लोभ भी जिसके (पयणुए) अल्प हैं, (पसंतचित्ते) प्रशान्त है चित जिसका (दंतप्पा) जो आत्मा को दमन करता है, (जोगवं) जो मन, वचन, काया के शुभ योगों को प्रवृत्त करता है, (उवहाणव) जो शास्त्रीय तप करता है, (तहा) तथा (पयणुवाई) जो अल्प भाषी है और वह भी सोच विचार कर बोलता है, (य) और 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oor KARooo00000000000000 000000000000 0000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/134 10000000000000081 500000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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